आजादी के दीवानों का शहादत स्थल
इसी बरगद पर 135 क्रांतिकारियों को ब्रिटानिया हुकूमत ने दी थी एक साथ फांसी
'स्वाधीनता आंदोलन" में हिन्दुस्तानियों पर कम जुल्म नहीं हुये। फिर भी हिन्दुस्तानियों ने ब्रिाटानिया हुकूमत के दांत खट्टे कर दिये थे। इसके लिए भले ही आजादी के दीवानों को जान की कीमत चुकानी पड़ी हो। शय-मात के इस द्वंद में ब्रिटानिया हुकूमत को हर बार हिन्दुस्तानियों से जबर्दस्त टक्कर मिलती थी। 'मेमोरियल वेल" में दो सौ अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया तो ब्रिटानिया हुकूमत बौखला गयी। कानपुर शहर का 'कम्पनी बाग" (अब नानाराव पार्क) हिन्दुस्तानियों के लिए यातना केन्द्र बन गया था। हिन्दुस्तानियों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही के फैसले से लेकर अमल तक इसी कम्पनी बाग में होते थे। शहर व गंगा नदी के मध्य क्षेत्र में स्थित नानाराव पार्क अतीत का गवाह बन गया। नानाराव पार्क ने हिन्दुस्तानियों पर अनेक जुल्म देखे। 'कोई साक्षी नहीं-कोई गवाह नहीं...." बस सिर्फ ब्रिटानिया हुकूमत के हुक्मरानों के मनमाने व बदला लेने वाले फैसले होते। 'बूढ़ा बरगद" अब तो उसकी भी कमर टूट गयी। स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारियों को उसी की शाखाओं पर फांसी दी गयी। 'बूढ़ा बरगद" अब बूढ़ा हुआ लेकिन तब तो जवान था। खुद के शहर के बाशिंदों को फांसी पर लटका कर 'बरगद" भी कांप उठा था... मन ही मन खूब फफक-फफक कर रोया... पर उसकी कौन सुनने वाला था। क्रांति के दौरान 1857 से 1947 तक यह स्थान फांसी स्थल बना रहा। ब्रिटानिया हुकूमत को जिस पर शक हुआ, उसे फांसी पर लटका दिया। हिन्दुस्तानियों को इस क्षेत्र में प्रवेश की इजाजत नहीं थी। अंग्रेज अफसर किसी को पकड़ कर इस क्षेत्र में ले जाते तो मान लिया जाता कि उसे अब फांसी दी जायेगी। 'बीबीघर" काण्ड के बाद बौखलाये ब्रिाटिश शासन ने 135 (एक सौ पैंतीस) क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी थी। उस दिन यह बूढ़ा बरगद चित्कार उठा था.... अब बस बहुत हो चुका.... । आक्रोश दोनों तरफ था। दो सौ महिलाओं व बच्चों को मौत के घाट उतार जाने से अंग्रेज बौखला गये थे तो वहीं बूढ़ा बरगद पर 135 क्रांतिकारियों को सामूहिक फांसी दिये जाने से हिन्दुस्तानी बेहद आक्रोश में थे। इंग्लैण्ड में सड़कों पर नानाराव पेशवा के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे तो हिन्दुस्तान में आंदोलन पर तेज हो रहा था। आक्रोश से बचने के लिए किसी भी अंग्रेज अफसर ने इस फांसी का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। यह बरगद आैर मिट्टी न केवल स्वाधीनता आंदोलन व क्रांतिकारियों की फांसी का गवाह है। आजादी के बाद बूढ़ा बरगद स्थल को 'शहीद उपवन" के तौर पर जाना जाने लगा।

यह शिलालेख बहुत कुछ याद दिलाता है। शहीद उपवन में एक अजीब सी खामोशी आज
भी विद्यमान रहती है। हालांकि मार्निंग वाकर्स व इवनिंग वाकर्स से उपवन
सुबह व सांझ आबाद रहता है। फिर स्वाधीनता आंदोलन की गौरव गाथा सुन कर स्मरण
कर तन-मन.... रोम-रोम झंकृत हो जाता है।