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Wednesday, November 30, 2016


स्वाधीनता आंदोलन : बूढ़ा बरगद
आजादी के दीवानों का शहादत स्थल
इसी बरगद पर 135 क्रांतिकारियों को ब्रिटानिया हुकूमत ने दी थी एक साथ फांसी
 
       'स्वाधीनता आंदोलन" में हिन्दुस्तानियों पर कम जुल्म नहीं हुये। फिर भी हिन्दुस्तानियों ने ब्रिाटानिया हुकूमत के दांत खट्टे कर दिये थे। इसके लिए भले ही आजादी के दीवानों को जान की कीमत चुकानी पड़ी हो। शय-मात के इस द्वंद में ब्रिटानिया हुकूमत को हर बार हिन्दुस्तानियों से जबर्दस्त टक्कर मिलती थी। 'मेमोरियल वेल" में दो सौ अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया तो ब्रिटानिया हुकूमत बौखला गयी। कानपुर शहर का 'कम्पनी बाग" (अब नानाराव पार्क) हिन्दुस्तानियों के लिए यातना केन्द्र बन गया था। हिन्दुस्तानियों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही के फैसले से लेकर अमल तक इसी कम्पनी बाग में होते थे। शहर व गंगा नदी के मध्य क्षेत्र में स्थित नानाराव पार्क अतीत का गवाह बन गया। नानाराव पार्क ने हिन्दुस्तानियों पर अनेक जुल्म देखे। 'कोई साक्षी नहीं-कोई गवाह नहीं...." बस सिर्फ ब्रिटानिया हुकूमत के हुक्मरानों के मनमाने व बदला लेने वाले फैसले होते। 'बूढ़ा बरगद" अब तो उसकी भी कमर टूट गयी। स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारियों को उसी की शाखाओं पर फांसी दी गयी। 'बूढ़ा बरगद" अब बूढ़ा हुआ लेकिन तब तो जवान था। खुद के शहर के बाशिंदों को फांसी पर लटका कर 'बरगद" भी कांप उठा था... मन ही मन खूब फफक-फफक कर रोया... पर उसकी कौन सुनने वाला था। क्रांति के दौरान 1857 से 1947 तक यह स्थान फांसी स्थल बना रहा। ब्रिटानिया हुकूमत को जिस पर शक हुआ, उसे फांसी पर लटका दिया। हिन्दुस्तानियों को इस क्षेत्र में प्रवेश की इजाजत नहीं थी। अंग्रेज अफसर किसी को पकड़ कर इस क्षेत्र में ले जाते तो मान लिया जाता कि उसे अब फांसी दी जायेगी। 'बीबीघर" काण्ड के बाद बौखलाये ब्रिाटिश शासन ने 135 (एक सौ पैंतीस) क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी थी। उस दिन यह बूढ़ा बरगद चित्कार उठा था.... अब बस बहुत हो चुका.... । आक्रोश दोनों तरफ था। दो सौ महिलाओं व बच्चों को मौत के घाट उतार जाने से अंग्रेज बौखला गये थे तो वहीं बूढ़ा बरगद पर 135 क्रांतिकारियों को सामूहिक फांसी दिये जाने से हिन्दुस्तानी बेहद आक्रोश में थे। इंग्लैण्ड में सड़कों पर नानाराव पेशवा के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे तो हिन्दुस्तान में आंदोलन पर तेज हो रहा था। आक्रोश से बचने के लिए किसी भी अंग्रेज अफसर ने इस फांसी का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। यह बरगद आैर मिट्टी न केवल स्वाधीनता आंदोलन व क्रांतिकारियों की फांसी का गवाह है। आजादी के बाद बूढ़ा बरगद स्थल को 'शहीद उपवन" के तौर पर जाना जाने लगा।

शहीद उपवन का शिलाखण्ड आज भी दास्तां को बयां करता है। शहीद उपवन का यह बूढ़ा बरगद आज भी दर्द बयां करता है। 'आखिर क्यों जानना चाहते हो मेरे (बूढ़ा बरगद) बारे में ...... सुनो... मैं केवल जड़, तना व पत्तियों से युक्त वटवृक्ष ही नहीं हूं बल्कि गुलाम भारत से आज तक के इतिहास का साक्षी हूं। मैंने (बूढ़ा बरगद) अनगिनत बसन्त व पतझड़ देखे, 4 जून 1857 का वह दिन भी जब मेरठ से सुलगती आजादी की चिंगारी कानपुर में शोला बन गई। मैने नाना साहब की अगुवाई में तात्या टोपे की वीरता देखी, रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान देखा आैर देखी अजीमुल्ला खां की शहादत, मुझे वह दिन भी याद है, जब बैरकपुर छावनी में मेरे सहोदर पर लटकाकर क्रांति के अग्रदूत मंगल पाण्डे को फांसी दी गई जिससे देशवासी दहल उठे। देश की आजादी के दीवानों पर क्रूर एवं दमनपूर्ण कहर ढ़ाने वालों से मेरी जड़ें तक हिल गर्इं। वह दिल दहलाने वाला दिन आज भी नहीं भूल पाता, जब 135 देश भक्तों को अंग्रेजों ने मेरी ही शाखाओं पर फांसी के फंदे पर लटकाया। उस दिन मैं थर्राया, बहुत चीखा-चिल्लाया, चीखते-चीखते गला रुंध गया। आंख के आंसू रो-रोकर सूूख गये। यह रोमांच-कारी दर्द भरी दास्तान याद आते ही मैं कराह उठता हूं। तुम्हारा बूढ़ा बरगद।
यह शिलालेख बहुत कुछ याद दिलाता है। शहीद उपवन में एक अजीब सी खामोशी आज भी विद्यमान रहती है। हालांकि मार्निंग वाकर्स व इवनिंग वाकर्स से उपवन सुबह व सांझ आबाद रहता है। फिर स्वाधीनता आंदोलन की गौरव गाथा सुन कर स्मरण कर तन-मन.... रोम-रोम झंकृत हो जाता है।       



Tuesday, November 29, 2016


नानाराव पार्क : आजादी के इतिहास का गवाह 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मतवालों की प्रतिमायें
आक्सीजन क्लाइमेट : मार्निंग वाकर्स की पसंद
        
कानपुर शहर की गलियां-चौबारे भले ही कंक्रीट के जंगलों में दब्दील हो रहे हों लेकिन अभी भी फेफडों के लिए आक्सीजन की कमी नहीं। जी हां, शहर के घनी आबादी वाले इलाकों खास तौर से नयागंज, जनरलगंज, कमला टावर, सिरकी मोहाल सहित दर्जनों इलाकों में पार्क या तो खत्म हो गये या फिर बदइंतजामी का शिकार हो गये। शहर की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन इलाको में ही बसता है। लाजिमी है कि आक्सीजन की कमी महसूस होगी लेकिन इसी इलाके का ऐतिहासिक नानाराव पार्क शहरियों को भरपूर आक्सीजन उपलब्ध कराता है। समय ने रंग बदले पार्क के नाम बदलते रहे। कभी इसे 'मेमोरियल वेल" कहा गया तो कभी कम्पनी बाग के नाम से जाना गया तो अब इसे "नानाराव पार्क" पुकारा जाता है। 'नानाराव पार्क" अर्थात 'आक्सीजन क्लाइमेट"। कानपुुर के मॉल रोड इलाके का यह पार्क सुबह हो सांझ एक निराले अंदाल में ही दिखता है। मार्निंग वाकर्स व इवनिंग वाकर्स की चहल-पहल बनी रहती है।

ब्रिटिशकाल में इसे 'मेमोरियल वेल" के तौर पर जाना गया क्योंकि 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में नाना साहब पेशवा व आजादी के दीवानों ने लगभग दो सौ ब्रिाटिश महिलाओं एवं बच्चों को इस वेल (कुंआ) में जिंदा डाल दिया था। यह नरसंहार जहां हुआ, उसे बीबीघर कहा जाता था। ब्रिाटिश हुकूमत ने बदला लेने की मंशा से भारतीय जनमानस के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए इस एकांत क्षेत्र का उपयोग किया। अंतोगत्वा, भारत सरकार ने आजादी के बाद 'ब्रिाटिश स्मारक" को ध्वस्त करा दिया। नानाराव पार्क के मॉल रोड वाले हिस्से में शहीद उद्यान बनाया गया। शहीद उद्यान में तात्या टोपे, अजीजा बाई व झांसी की रानी आदि की मूर्तियां प्रतिष्ठापित हैं। यह उद्यान खास तौर से 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम" के नाम है। नानाराव पार्क को वाकई पर्यावरण संवर्धित पार्क कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। इस पार्क के रखरखाव का उत्तरदायित्व स्थानीय निकाय के हाथ में है।                                                                 प्रकाशन तिथि 29.11.2016

Monday, November 28, 2016


 मोतीझील : आबादी को भरपूर आक्सीजन
  करगिल 'शहीद स्तम्भ" नमन स्थल
 
       'मोतीझील" शहर का एक शानदार सैर-सपाटा-पर्यटन स्थल तो वहीं राष्ट्र को समर्पित 'शहीद स्तम्भ"। जी हां, बात चाहे मार्निंग वाकर्स की हो या घूमने-फिरने आने वाले सैलानियों की हो..... शहर के बाशिंदों की पसंदगी में मोतीझील अपना अलग मुकाम रखता है। कानपुर के इस मोतीझील के बहुआयामी उपयोग साफ तौर पर दिखते हैं। अमर शहीद स्तम्भ तो वहीं शहर की एक बड़ी आबादी को पीने का पानी भी इसी झील से उपलब्ध होता है। मोतीझील में मुुख्य तौर पर दो बड़े जलाशय हैं। इस झील से बेनाझाबर को करीब आठ करोड़ लीटर पेयजल दैनिक उपलब्ध होता है। इससे शहर की एक बड़ी आबादी अपनी प्यास बुझाती है।

विशेषज्ञों की मानें तो 'मोतीझील" शहर के फेफड़ों का कार्य करती है। मंद-मंद प्रवाहमान हवा के झोके निश्चय ही मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित व तन-मन को तरोताजा कर देती है। ब्रिाटिशकाल में मोतीझील अस्तित्व में दिखी। अब हालात यह हैं कि मोतीझील को शहर का गौरव कहा जाए या आकर्षण तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। मुन्सिपेलटी ने वर्ष 1891 में कानपुुर शहर की आबादी को पीने का पानी उपलब्ध कराने पर विचार-विमर्श-मंथन किया। कानपुुर की आबादी उस वक्त अभिलेखीय अनुसार 151444 थी। एरिया भी 109230 था। इंजीनियर ए जे ह्यू ने पेयजल की योजना को आकार दिया। तय हुआ कि रानीघाट गंगा नदी से स्टीम इंजन के जरिये पीने का पानी लाया जायेगा। बृजेन्द्र स्वरुप पार्क को पूर्व में आवर झील के तौर पर जाना जाता था। यह इलाका खास तौर बेहना बाहुल्य था लिहाजा इसे बेनाझाबर के नाम से जाना जाने लगा।

वर्ष 1795 में रामपुर से दो सूबेदार भाई अबदुल्लाह खां एवं सादुल्लाह खां शहर आ कर बसे थे। लिहाजा इनकी सम्पत्तियां शहर में थीं। घुसरामऊ गांव का करीब चार मील का एरिया पेयजल की व्यवस्थाओं के लिए अधिग्रहीत किया गया था। वर्ष 1892 में इस परियोजना ने विधिवत कार्य प्रारम्भ किया। इसका विधिवत उद्घाटन एक मार्च 1894 को संयुक्त प्रांत के लेफ्टीनेंट गर्वनर रास्चार्ज कुस्थवेट ने किया था। मुन्सिपेलटी के चेयरमैन 1891 से 1894 तक एच एम वर्ड रहे। इसके बाद 1916 में मुन्सिपेलटी एक्ट बना। चुनाव हुए जिसमें रायबहादुर बाबू बिहारी लाल पटेल चेयरमैन निर्वाचित हुये। इसी दौरान मोतीलाल नेहरु कांग्रेस के प्रमुख बने। अंग्रेज इसे वाटर वक्र्स कहते थे तो हिन्दुस्तानी बेनाझाबर कहते थे। मोतीलाल की पत्नी स्वरुप रानी के नाम से स्वरुप नगर बसा। टाउनहाल में मुन्सिपेलटी दफ्तर छोटा पड़ने लगा तो वर्ष 1958 में मोतीझील में दफ्तर के लिए इमारत का निर्माण हुआ। घुसरामऊ नाम पसंद न आने पर इस इलाके को मोतीझील कहा जाने लगा।

वर्ष 1999 में एक बार फिर मोतीझील का बहुआयामी विकास रंगत लेते दिखा। 'करगिल युद्ध विजय" के बाद मोतीझील में 'शहीद स्तम्भ" बना। शहीद स्तम्भ में करगिल युद्ध के अमर शहीद सैनिकों के नाम अंकित किये गये। तत्कालीन आवास एवं नगर विकास मंत्री लाल जी टण्डन ने विधिवत उद्घाटन किया। कानपुर विकास प्राधिकरण के तत्कालीन उपाध्यक्ष नरेश नन्दन प्रसाद के नेतृत्व में मोतीझील के कलेवर बदले। दोनो झील में फव्वारा लगे तो वहीं मोतीझील को चौतरफा पेड़-पौधों से सुसज्जित किया गया। मोतीझील में नौकायन की व्यवस्था की गयी। मोतीझील शहर का एक शानदार पार्क, एक शानदार पर्यटन स्थल, शहीद स्तम्भ. मार्निंग वाकर्स प्वांइट आदि बहुत कुछ है। कानपुर मोतीझील को शहर का फेफड़ा कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। मार्निंग वॉक के लिए सुबह-सांझ शहर के विभिन्न इलाकों से शहर के बाशिंदे आते हैं।              प्रकाशन तिथि 28.11.2016    






Tuesday, November 22, 2016

   कमला रिट्रीट : 
  लुभावना पर्यटन स्थल
  
       उत्तर प्रदेश की आैद्योगिक राजधानी कानपुर को शानदार-जानदार बनाने में शासकीय व्यवस्थाओं के साथ साथ शहर के उद्योगपतियों का योगदान भी कम नहीं रहा। आैद्योगिक घरानों ने केवल उद्योग ही नहीं लगाये बल्कि पर्यटन स्थल भी विकसित किये। सिंघानिया परिवार ने शहर को 'कमला रिट्रीट" के रूप में शहर को एक शानदार एवं लुभावना मनोरंजन एवं पर्यटन स्थल सौगात के तौर पर दिया। हालांकि इसका नियंत्रण सिंघानिया परिवार के हाथ में ही है फिर भी यह शहर का एक शानदार पर्यटन स्थल है। इसे रिसार्ट भी कहा जा सकता है। इसमें पार्क, लॉन, संग्रहालय, विश्राम कक्ष, सभागार आदि बहुत कुछ है। इस रिसार्ट का मुख्य आकर्षण 'म्युजिकल वॉटर फाउण्टेन" है। मधुर एवं कर्णप्रिय संगीत की धुनों पर जल क्रीड़ा अर्थात जलतरंगों का नृत्य देख कर प्रफुल्लित एवं पुलकित हो उठता है। सही मायने में पिकनिक आनन्द यहां लिया जा सकता है। पर्यटकों के लिए नौकाविहार की व्यवस्था भी यहां है तो स्विमिंग पुल का भी भरपूर लुत्फ उठाया जा सकता है।

तिम तरंगों का बनना देखते ही बनता है। परिसर में एक अतिसमृद्ध संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में प्राचीनकाल के अस्त्र-शस्त्र से लेकर बर्तन आदि का बेहतरीन संग्रह है। यह संग्रहालय ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक कलात्मकता को भी दर्शाता है। यह पर्यटन स्थल सिंघानिया परिवार की निजी सम्पत्ति एवं उसके अधिकार क्षेत्र में है। प्रबंधन की स्वीकृति एवं अनुमति से ही इस पर्यटन स्थल में प्रवेश मिलता है। इसका निर्माण उद्योगपति पदमपत सिंघानिया ने 1960 में कराया था। यह शानदार रिसार्ट चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय परिसर के अंत में हरकोर्ट बटलर प्रौद्योगिक संस्थान (एचबीटीआई) के निकट स्थित है। अतिविशिष्टजन एवं विशिष्टजन के लिए यह एक अति पसंदीदा स्थल के तौर पर है। पर्यटक इस रिसार्ट में स्वप्नलोक महसूस करते हैं। खास दावतें भी यहां आयोजित होती हैं।                                                                                     
कमला टॉवर : 
शहर की धड़कन  
       'कमला टॉवर" शहर की खास पहचान। सामान्तय: शहर के हर स्थान-गली-मोहल्ला की अपनी एक खास पहचान होती है। कानपुर के कमला टॉवर की भी अपनी एक विशिष्ट पहचान है। शहर के द्वारिकाधीश रोड पर कमला टॉवर तिराहा है। इसे चौक भी कह सकते हैं क्योंकि गली-कूचों वाला इलाका कहीं न कहीं कोई गली का ताल्लुक रख कर चौराहा-चौक हो जाता है। कमला टॉवर खास तौर पर आैद्योगिक घराना सिंघानिया परिवार के लिए जाना जाता है। जे.के. समूह का व्यापारिक मुख्यालय कमला टॉवर से संचालित होता है। इस खूबसूरत टॉवर का निर्माण एवं डिजाइन लंदन के लंदन टॉवर एवं बिग बेन की तरह किया गया था। समूह के मुखिया लाल कमलापत सिंघानिया ने बनवाया था।                       प्रकाशन तिथि 22.11.2016 


Monday, November 21, 2016

एशिया का मैनचेस्टर कानपुर :
खोया भी हासिल भी

   'एशिया का मैनचेस्टर" का खिताब रखने वाला 'कानपुर" का भी अपना एक अलग एवं शानदार इतिहास रहा। कानपुर ने राजा-रजवाड़ा का अंदाज देखा तो वहीं मुगल शासकों का शासन भी जिया। गोरी सरकार (ब्रिटानिया हुकूमत) के कोड़े भी खाये। लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी शिद्दत से महसूस किया। करीब चालीस लाख की आबादी वाले इस शहर कानपुर की स्थापना का श्रेय सामान्य तौर पर हिन्दू राजा हिन्दू सिंह को दिया जाता है। सचेण्डी राज्य के राजा हिन्दू सिंह ने कान्हपुर के नाम से इस शहर को आबाद किया था। करीब ढ़ाई सौ वर्ष के इतिहास में कानपुर ने अनेक इतिहास रचे तो अनेक इतिहास देखे। 

किवदंती यह भी है कि महाभारत काल में कानपुर बसा। वीर-योद्धा कर्ण से ताल्लुक होने के कारण इस शहर का नामकरण 'कान्हपुर" नाम से किया गया था। अवध के नवाबों का भी शासन कानपुर में रहा। यह शहर पुराना कानपुर, कुरसवां, पटकापुर, सीसामऊ व घुसरामऊ आदि गांवों की भूमि पर बसा। किवदंतियों की मानें तो आैद्योगिक राजधानी का दर्जा रखने वाले इस शहर का शासन कभी कन्नौज व कालपी के शासकों के हाथ भी रहा। बताते हैं कि वर्ष 1773 की संधि के बाद इस शहर की कमान ब्रिाटानिया हुकूमत के हाथ में चली गयी। ब्रिटानिया हुकूमत ने शासन के पांच वर्ष बाद 1778 में छावनी की स्थापना की। गंगा तट पर बसा होने के कारण जल यातायात की सुगमता थी लिहाजा शहर ने धीरे-धीरे आैद्योगिक स्वरूप लेना प्रारम्भ कर दिया। प्रारम्भ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कानपुर में नील बनाने का उद्योग स्थापित किया। वर्ष 1832 में ग्रांड ट्रंक रोड (जी टी रोड) बन जाने से शहर इलाहाबाद से भी जुड़ गया। 

लखनऊ, कालपी व इलाहाबाद सहित आसपास के नगरों से जुड़ने से शहर व शहर में आैद्योगिक विकास अत्यंत तेजी से हुआ। वर्ष 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिाटानिया हुकूमत ने नहर से पश्चिम एवं जाजमऊ के पूर्व का क्षेत्र शहरी बाशिंदों व शासकीय व्यवस्थाओं के लिए अवमुक्त कर दी। शहरी विकास एवं आैद्योगिक विकास होने के साथ ही वर्ष 1859 में रेल संसाधन का विकास हुआ। रेलवे स्टेशन व रेलवे लाइन की व्यवस्थायें होने के बाद शहर के विकास ने एक बार फिर गति पकड़ी। सूती वस्त्र, चमड़ा, प्लास्टिक, इस्पात, इंजीनियरिंग आदि  आैद्योगिक विकास हुआ। इसके बाद शहर का अत्यंत तेजी से विकास हुआ। यूरोपीय व्यापारियों, प्रतिष्ठान व गोदाम आदि की रक्षा के लिए फौज की पर्याप्त व्यवस्था ब्रिाटिश हुकूमत ने की थी। छावनी क्षेत्र में फौज का विशाल शस्त्रागार व यूरोपियन हास्पिटल भी बनाया गया।

 शनै:-शनै: विस्तार ने कानपुर की सीमायें समय-समय पर परिवर्तित की लेकिन छावनी क्षेत्र में अभी भी सदर बाजार, लालकुर्ती, गोरा बाजार, कछियाना, सुुतरखाना, दानाखोरी, घसियारी मण्डी, तेलियाना, माल रोड़ का आंशिक हिस्सा है। हालात यह हैं कि अब शहरी क्षेत्र पूर्व में रूमा, पश्चिम में मंधना, दक्षिण में रमईपुर-बिनगंवा, पश्चिम-दक्षिण में भौंती-पनकी आदि इलाकों से भी कहीं आगे निकल गया है। विशेषज्ञों की मानें तो   कानपुर शहर सौ वर्ग किलोमीटर से भी कहीं अधिक दायरे में बस चुका है। विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर-अनवरत जारी है। शहर ने आैद्योगिक विकास में असंख्य उतार-चढ़ाव देखे। कभी उद्योग तेजी से खुले तो कभी बंद हुये। आैद्योगिक पलायन ने भी शहर की तस्वीर में बदलाव किये। ऐसा नहीं है कि आैद्योगिक विकास विराम लगा क्योंकि शहर के पश्चिम में उत्तर से दक्षिण तक दादानगर, पनकी, भौंती सहित कई आैद्योगिक एरिया का विकास हुआ। शहर की खाशियत में नानाराव पार्क (कम्पनी बाग), चिडियाघर, श्री राधाकृष्ण मंदिर, सनातन धर्म मंदिर, कांच का मंदिर, हनुमान मंदिर पनकी, सिद्धनाथ मंदिर, जाजमऊ, आनन्देश्वर मंदिर परमट, जागेश्वर मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर चौबेपुर, सांई मंदिर बिठूर, गंगा लव-कुश बैराज, छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान, हरकोर्ट बटलर प्रौद्योगिक संस्थान एवं चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय एवं जाजमऊ किला आदि हैं।                    प्रकाशन तिथि 21.11.2016   

Sunday, November 20, 2016

कांच का मंदिर : 
एक नायाब शिल्पकारी
  
       'कांच का मंदिर" एक नायाब शिल्पकारी ! जी हां, कांच अर्थात दपर्ण को एक अत्यधिक संवेदनशील धातु के तौर पर देश-दुनिया में माना जाता है क्योंकि जरा सी असावधानी से दपर्ण अर्थात कांच चकनाचूर हो जाता है। इसे फिर पुर्न:स्वरुप में किसी भी दशा में नहीं लाया जा सकता। वहीं हुनर भी कभी कहीं कमजोर नहीं बैठता। यह हुनर का ही कमाल है कि शिल्पकारों ने कानपुर में एक बेहतरीन 'कांच का मंदिर" गढ़ा। कांच का यह मंदिर भले ही कानपुर की एक सकरी व पतली गली में हो लेकिन दुनिया में कांच के मंदिर की ख्याति है। शिल्पकारी में शिल्पकारों ने अपने अंदाज-ए-हुनर को बखूबी बयां किया है कि हम भी किसी से कम नहीं। इस भव्य-दिव्य मंदिर को गढ़ने में हिन्दुस्तानी शिल्पकारों के संग-संग ईरान के शिल्पकार भी रहे। कानपुर के माहेश्वरी मोहाल स्थित इस मंदिर में जैन समुदाय के भगवान महावीर एवं अन्य सभी तीर्थकंरों की प्रतिमा प्रतिष्ठापित हैं। मुख्य गर्भगृह में भगवान महावीर के साथ प्रतिष्ठापित तीर्थकंरों की प्रतिमाएं चाौतरफा कांच-दपर्ण से सुशोभित है। दपर्ण से छवियां विशेष आलोकित होती है। इस मंदिर का निर्माण व्यापारी हुकुम चन्द जैन ने कराया था। वर्ष 1903 के आसपास इस मंदिर का निर्माण प्रारम्भ हुआ था। 

कांच का मंदिर खास तौर से मध्ययुगीन हवेली की तरह दिखता है। कक्ष, बरामदा, बालकनी एवं शिखर सहित सभी बहुत कुछ अपने आप में विशिष्टताएं समेटे हैं। 'कांच का मंदिर" में कॉलम, दीवार व छत सहित अन्य सभी निर्माण में सिर्फ कांच ही उपयोग में लाया गया। मीनाकारी से मंदिर का दर-ओ-दीवार शोभित है। फर्श सफेद संगमरमर से सुशोभित है। कांच का यह मंदिर शहर में एक केन्द्रीय संस्था के तौर पर भी कार्य करता है। जैन समुदाय के सभी पर्व-उत्सव एवं त्योहार अति उत्साह एवं श्रद्धा के साथ इस मंदिर में भी मनाए जाते हैं। बताते हैं कि जैन कांच मंदिर का निर्माण 24 तीर्थकंरों की स्मृति में कराया गया था। यह मंदिर कला का एक अतिउत्कृष्ट उदाहरण है। दर-ओ-दीवार पर कांच के टुकडों से भित्ति चित्र बने हैं। इसमें जैन ग्रथों के निहित शिक्षा एवं उपदेशों को रेखांकित एवं चित्रित किया गया है। दपर्ण से सजे मेहराब बेहद आकर्षित करते हैं।                        प्रकाशन तिथि 20.11.2016  


Saturday, November 19, 2016

केईएम हाल : यूरोपीय शैली का प्रेक्षागृह
 
       उत्तर प्रदेश का आैद्योगिक शहर कानपुर अपने आगोश में नायाब संस्कृतियों के साथ साथ कलात्मकता को भी समेटे  है। सांस्कृतिक संरक्षण. पुष्पन-पल्लवन के लिए कानपुर में एक बेहतरीन प्रेक्षागृह रहा। जी हां, इसे के.ई.एम. हाल (किंग एडवर्ड मेमोरियल हाल) के नाम से जाना गया। हालांकि आज भी इसे इसी नाम से जाना जाता है लेकिन समय के साथ साथ अब इस बेहतरीन प्रेक्षागृह व इमारत में कई बदलाव किए जा चुके है। एडवर्ड सप्तम के सम्मान में इस हाल का निर्माण ब्रिटिश अफसरों ने कराया था। इसमें भारतीय आर्थिक सहयोग भी रहा। यह भव्य-दिव्य इमारत कलात्मकता को दृश्यांकित करती है। केईएम हाल ऐतिहासिक अतीत को भी दर्शाता है। 

कानपुर की यह इमारत ब्रिटिश आैपनिवेशकाल को बखूबी बयां करती है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान किंग एडवर्ड मेमोरियल हाल (केईएम हाल) का उपयोग आर्थोपेडिक पुनर्वास अस्पताल के तौर पर किया गया था। ब्रिटिशकाल में कानपुर में बसे यूरोपीय व्यापारियों को शहर में मनोरंजन स्थल की आवश्यकता महसूस होने पर इस बेहतरीन सांस्कृतिक प्रेक्षागृह का निर्माण किया गया था। इस प्रेक्षागृह में अभी भी यूरोपीय शैली का अवलोकन होता है। ब्रिटिशकाल में यह स्थल यूरोपीय शैली मनोरंजन केन्द्र के तौर पर था। ब्रिटेन में किंग एडवर्ड की मौत होने के बाद उनकी याद व सम्मान में इस केन्द्र की स्थापना की गयी। पश्चिमी शैली के इस केन्द्र में प्रेक्षागृह है तो वहीं डांसिंग फ्लोर भी है। 

ब्रिटिशकाल में यह मनोरंजन स्थल सांझ-ओ-रात गुलजार रहता था। शहर के छावनी क्षेत्र में सैन्य बल के घायलों के उपचार हेतु कोई स्थल उपलब्ध नहीं था लिहाजा इस स्थल का उपयोग अस्पताल के तौर पर किया गया। यह स्थल धनाढ¬ भारतीय शादी -विवाह एवं मांगलिक कार्य के लिए किराये पर भी लेते थे। देश आजाद होने के बाद 1947 केईएम हाल को गांधी भवन के रुप में परिवर्तित कर दिया गया लेकिन आज भी इसे केईएम हाल के रुप में ही जाना जाता है। केईएम हाल फूलबाग के एक हिस्से में स्थित है।                 प्रकाशन तिथि 20.11.2016

कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान
  
       कानपुर की शान, देश-विदेश में पहचान। जी हां, उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की शान से 'लाल इमली" मिल को नवाजा जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। लाल इमली के कम्बल हों या कोई अन्य उत्पाद वस्त्र उद्योग एवं उपभोक्ताओं के बीच अपनी खास अहमियत रखते हैं। लाल इमली शहर की केवल एक मिल ही नहीं बल्कि एक इतिहास भी है। एशिया के मैनचेस्टर की आैद्योगिक ताकत का एहसास वाकई यह शहर कराता है। आैद्योगिक ताकत में लाल इमली मिल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लाल इमली मिल शहर के बाशिंदों को 'समय" की याद भी दिलाता-बताता है। 

करीब एक सौ चालीस वर्ष पहले 1876 में पांच अंग्रेज वी ई कूपर, जॉर्ज ऐलेन, गैविन एस जोंस, डाक्टर कॉडोन व बिवैन पेटमैन ने संयुक्त तौर पर एक छोटी सी मिल की स्थापना की थी। शहर के सिविल लाइंस में स्थापित एवं संचालित इस मिल ने धीरे-धीरे एक वृहद स्वरुप हासिल कर लिया। बताते हैं कि इसके संसद में एक विशेष कानून भी बना। लाल इमली मिल की स्थापना खास तौर से निर्बल एवं कमजोर तबके की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर की गई थी। मिल में सस्ते ऊनी कम्बल एवं शॉल सहित अन्य वस्त्र उत्पादन खासियत रही। इस मिल से गरीबों को आवश्यकताओं के लिए वस्त्र आदि रियायती दर पर उपलब्ध होते थे तो वहीं ब्रिाटिश सेना के सिपाहियों के लिए कम्बल बड़ी तादाद में बनते थे। विस्तार के साथ ही इसके उत्पाद देश-विदेश में बड़ी तादाद में भेजे जाते थे। इस मिल का नाम प्रारम्भ में कानपोर वुलेन मिल्स रखा गया। मिल परिसर में एक इमली का विशाल पेड़ हुआ करता था। शनै: शनै: इमली इस मिल की पहचान बन गयी। चूंकि शहर में अन्य मिलें भी थीं। लिहाजा इस मिल को इमली वाला मिल के तौर पर जाना-पहचाना जाने लगा। आम बातचीत में इमली वाला मिल आ गया। वर्ष 1910 में अचानक इस मिल में आग लग गई। मिल की नई इमारत गोथ शैली में लाल र्इंट (ब्रिाक्स) से बनाई गयी। लिहाजा इस मिल को 'लाल इमली" की नई इबारत मिल गयी। 

उस वक्त चूंकि घंटे एवं घड़ियों की कोई पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। लिहाजा मिल प्रबंधन ने घंटाघर बनाने का फैसला लिया। वर्ष 1911 में घंटाघर बनना प्रारम्भ हुआ आैर वर्ष 1921 में बन कर तैयार हो सका। खास बात यह रही कि लाल इमली मिल का घंटाघर लंदन के बिग बेन की तर्ज पर बना। घंटाघर की ऊंचाई 130 फुट है। घंटाघर की टिकटिक करती सुइयां साफ तौर पर सुनी जा सकती हैं। इसे शहर की आैद्योगिक ताकत के तौर पर देखा जाने लगा। वर्ष 1947 में ब्रिाटिश देश छोड़ कर जाने लगे तो इसका प्रबंधन भारतीयों को सौंप दिया गया। कई उद्योगपतियों के हाथों से गुजरने के बाद आखिर वर्ष 1981 में लाल इमली मिल का नियंत्रण भारत सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। इस मिल के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल देश विदेश में मशहूर हैं।          प्रकाशन तिथि 19.11.2016 


Friday, November 18, 2016

जल बर्बादी रोकने के लिए नदी जोड़

जल बर्बादी रोकने के लिए नदी जोड़ इच्छाशक्ति हो तो क्या कुछ नहीं हो सकता ! जीि हां, देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी सरकार ने नदी जोड़ परियोजना का खाका खींचा था लेकिन परियोजनाएं आकार न ले सकीं। अब एक बार फिर कोशिश हो रही है कि देश की नदियों को जोड़ा जाए जिससे बारिश के जल की बर्बादी भी न हो आैर जल संसाधन भी विकसित हों। नदियों को जोड़ने का कार्य शीघ्र पूर्ण हो, इसके लिए विशेष समिति गठित की गयी थी। इस परियोजना के तहत केन-बेतवा, दमनगंगा-पिंजल, पार-तापी-नर्मदा, महानदी-गोदावरी आदि नदियों को जोड़ने की कोशिश है। नदी जोड़ परियोजना क्रियान्वित होने से सुरक्षित जल भण्डार को एक नया व बड़ा आयाम मिलेगा।