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Friday, December 30, 2016

हिन्दुस्तानियों की होली के सामने झुकी ब्रिटानिया हुकूमत 


      होली के इन्द्रधनुषी रंगों के सामने भी ब्रिटानिया हुकूमत को झुकना पड़ा था। जी हां, ब्रिाटानिया हुकूमत को हिन्दुस्तानियों की होली के सामने न केवल झुकना पड़ा बल्कि देश में एक नायाब परम्परा भी पड़ गयी।

       होली के देश भर में अजब-गजब रंग-ढंग दिखते हैं लेकिन कनपुरिया होली के अंंदाज ही निराले हैं। उत्तर प्रदेश के कानपुर में आैसतन एक सप्ताह तक होली का हुडदंग चलता है। रंग अबीर के छीटों-बौछारों से आठ दिनों तक शहर सराबोर रहता है। अनुराधा नक्षत्र  तक होरिहारों की मस्ती घर-गली, गलियारों से लेकर सड़कों तक दिखती है। उत्तर प्रदेश का कानपुर एक जमाने में एशिया का मैनचेस्टर का खिताब रखता था। आैद्योगिक कल-कारखानों से लेकर लघु उद्योगों से कानपुर आबाद था। मेहनतकश मजदूरों के लिए कानपुर जाना जाता था। देश के कोने-कोने, गांव-गलियारों के मजदूर यहां रोजी रोटी कमाते थे। खास तौर उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल यहीं बसता था। कानपुर का हटिया, नौघड़ा, लाठी मोहाल, राम गंज, शकरपट्टी, दाल मण्डी, नयागंज, जनरलगंज, सिरकी मोहाल व घुमनी मोहाल आदि सहित शहर के घनी आबादी वाले इलाकों में गरीबों व मजदूरों का आशियाना होता था।      

            मेहनतकश मजदूर दो तीन दिन होली का हुड़दंग करते थे। रंगों से सराबोर रहते थे। यह बात 1942 की है।  अंग्रेज हुक्मरानों को यह सब नागवार गुजरता था। एक  अंग्रेज अफसर ने एक दिन से अधिक होली खेलने पर रोक लगा दी। हुआ यह कि होरिहारे होली खेल रहे थे। उसी दौरान एक घुडसवार अंग्रेज अफसर गुजरा। होली का रंग उस अंग्रेज के उपर पड़ गया।  अंग्रेज अफसर गुस्से खूब लाल पीला हुआ। अंग्रेज अफसर ने एक दिन से अधिक होली खेलने पर रोक लगा दी। अंग्रेज कलक्टर ने इतना सख्त फरमान जारी कि एक दिन से अधिक जो भी होली खेलेगा, उसे गिरफ्तार कर लिया जायेगा। बस इस सांस्कृतिक गुलामी के खिलाफ शहर के बाशिंदों की फौज व मजदूर सड़कों पर उतर आये। कनपुरिया तेवर तीखे हो चले। शहर के बाशिंदों ने एक स्वर में आवाज बुलंद की कि अब एक दो दिन नहीं बल्कि एक सप्ताह होली खेलेंगे।

          इस एलान के साथ ही हटिया के रज्जन बाबू पार्क में इलाके के बाशिंदों ने तिरंगा झण्डा फहरा दिया। बस क्या था, अंग्रेज हुक्मरान बगावत करने वाले हिन्दुस्तानियों की खोजबीन में छापामारी करने लगे। तिरंगा फहराने वालों में लाला बुद्धू लाल, गुलाब चन्द सेठ, मूलचन्द सेठ, अमरीक सिंह, इकबाल कृष्ण कपूर, शिवनारायण, जागेश्वर त्रिवेदी, विश्वनाथ मेहरोत्रा, हरिमल मेहरोत्रा, रघुवर दयाल भट्ट, किशन शर्मा, कन्हैया लाल गुप्ता व पीताम्बर लाल आदि थे। इस एलान से शहर के बाशिंदे खास तौर से मजदूर खुशी से झूम उठे क्योंकि एक दो दिन के बजाय एक सप्ताह होली खेलने का मौका मिला। अंग्रेजी हुकूमत ने आदेश की अवज्ञा में लाला बुद्धू लाल, गुलाब चन्द सेठ सहित 43 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। विरोध में शहर के लोग सड़कों पर उतर आये। चारों ओर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नारेबाजी होने लगी।

         आंदोलन के उग्र तेवर देख अंग्रेज हुक्मरानों की नींद हराम हो गयी। इस आंदोलन में हिन्दू, मुस्लिम सिख सभी शामिल थे। आंदोलन को देख कर अन्तोगत्वा अंग्रेज हुक्मरानों को झुकना पड़ा। सभी गिरफ्तार रिहा कर दिये गये। जिस दिन रिहाई की गयी, उस दिन अनुराधा नक्षत्र था। ज्योतिष के अनुसार अनुराधा नक्षत्र प्रतिष्ठान व दुकान, कारोबार खोलने के लिए शुभ माना जाता है। आंदोलनकारियों की रिहाई होने के बाद उसी दिन अनुराधा नक्षत्र में दुकानों को खोला गया। होली का रंग खेला गया। हटिया के रज्जन बाबू पार्क से होरिहारों का मेला निकला। एक भैंसा ठेला पर एक पुतला रख कर मेला निकाला गया। रंग खेलते होरिहारों की फौज शहर के विभिन्न सड़कों से होते हुये सरसैया घाट पहंुचे। गंगा में नहा धोकर रंग साफ किया। शाम को उसी स्थान सरसैया घाट पर मेला लगा। होली गंगा मेला की परम्परा आज भी कायम है।

        धीरे-धीरेे होली गंगा मेला का स्वरूप बढ़ता गया। होली के बाद सरसैया घाट पर शाम को भव्य दिव्य मेला लगता है। एक किलोमीटर से अधिक दायरे में लगने वाला होली गंगा मेला एक  भव्य सांस्कृतिक आयाम की शक्ल में दिखता है। होली गंगा मेला में सैकड़ों की तादाद में पाण्डाल लगते हैं। इनमें पुलिस प्रशासन, जिला प्रशासन, नगर निगम, बैंक, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, सांस्कृतिक संस्थाओं सहित अनेकानेक प्रकार के पाण्डाल लगते हैं। ठंडई से लेकर पान, लौंग, इलाइची व सौंफ सहित बहुत कुछ इन पाण्डालों में सेवाभाव व  मिलनचार में उपलब्ध रहता है। शहर की राजनीतिक हस्तियां भले देश की शीर्ष सत्ता में हों लेकिन होली गंगा मेला में आना नहीं भूलते। दोपहर से प्रारम्भ होकर होली गंगा मेला देर रात तक चलता रहता है। होली से लेकर अनुराधा नक्षत्र तक शहर रंगों से सराबोर रहता है। हटिया होली गंगा मेला के संयोजक ज्ञानेन्द्र विश्नोई ज्ञानू कहते हैं कि कानपुर का होली गंगा मेला एक परम्परा के साथ ही सांस्कृतिक गुलामी के खिलाफ एक जंग की याद भी है। अब तो होली गंगा मेला एक सांस्कृतिक धरोहर की भांति है। 

                           

'मैजिक" सांइस एण्ड टेक्नालाजी

          बंगाल का 'काला जादू" भले ही मन-मस्तिष्क में कोई संशय पैदा करता हो लेकिन जादू (मैजिक) विज्ञान, तकनीकि व कला एक ऐसा समिश्रण है, जो आपके मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित-रोमांचित कर देता है। विशेषज्ञों की मानें तो जादू सिर्फ आैर सिर्फ एक चातुर्य कला है। इसमें विज्ञान, कला, तकनीकि सहित असंख्य महत्वपूर्ण विधाओं-आयामों का संगमन है क्योंकि खाली हाथ से भभूत (राख) आदि का निकलना कोई चमत्कार नहीं बल्कि वैज्ञानिक प्रयोग हैं।

       विज्ञान एवं तकनीकि के विकास एवं प्रयोगों से ही जादू के नवीनतम आयामों का विस्तार होता है। देश-दुनिया में जादुई करिश्मों की एक लम्बी श्रंखला देखने-सुनने को मिलती है। बात चाहे जहांगीर नामा की हो या फिर मैजिक बुक की हो.... जादुई करिश्मों का कहीं कोई अंत नहीं दिखता। जादू के हिन्दुस्तानी साधकों ने जादू को एक सकारात्मक रंग दिया जिससे समाज में 'हम सुधरेंगे राष्ट्र सुधरेगा...." की रीति-नीति के चिंतन को बल मिलता दिखा। छुटभइये जादूगरों की बात छोड़ दें तो नामचीन जादूगर अपने जादुई करिश्मों से कहीं न कहीं कोई संदेश अवश्य देते हैं जिससे आप सोचने या चिंतन के लिए विवश हो जायेंगे। छुटभइये जादूगरों की बात इस लिए भी छोड़ देनी चाहिए क्योंकि दो वक्त की रोजी-रोटी का जोड़ जुगाड़ उनको इतना वक्त नहीं देता कि वह कुछ नया कर सकें।                जादू की खास दुनिया में देखें तो गोगिया पाशा का नाम सबसे पहले उभर कर सामने आता है क्योंकि गोगिया पाशा ने जादू को एक नया आयाम दिया आैर हिन्दुस्तानी जादू को विदेशों तक ले गये। जादूगर पी सी सरकार जादू को गांव-गली-गलियारों से निकाल कर मंच (स्टेज) तक ले गये। जादूगर के. लाल ने जादू में ग्लैमर के रंग भरे। जिससे जादू आम से लेकर खास लोगों तक पहंुच गया। देश की आजादी के बाद 'मैजिक बुक" में एक नया आयाम जादूगर ओ.पी. शर्मा के नाम से जुड़ा। जादूगर ओ. पी. शर्मा ने चार दशक के जादुई सफर में एक हजार से अधिक आइटमस की श्रंखला पेश की। देश-विदेश में जादूगर ओ. पी. शर्मा ने आम आदमी के दुख दर्द से लेकर सामाजिक व्यवस्थाओं-कुरीतियों की व्यथा-कथा बयां करने से लेकर उन पर तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े। 

जादूगर ओ. पी. शर्मा अपने जादुई पिटारे को लेकर मारीशस, दुबई, इंग्लैण्ड, जापान, अमेरिका व नेपाल सहित कई देशों में जा चुके हैं। विदेशों में उनके एक हजार से अधिक शो हो चुके हैं। विशेषज्ञों की मानें तो जादूगर पी सी सरकार ने जादू के 23000 शो करने का एक रिकार्ड बनाया था लेकिन जादूगर ओ पी शर्मा इस रिकार्ड से कहीं आगे निकल चुके हैं। जादूगर ओ. पी. शर्मा   देश विदेश में अब तक करीब 35000 शो कर चुके हैं। इसमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, चण्डीगढ़, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आसाम, नागालैण्ड, उत्तराचंल, गुजरात, महराष्ट्र, गोवा, आन्ध्र प्रदेश, केरल व तमिलनाडु सहित देश के तमाम राज्यों में उनके जादुई शो हो चुके हैं। विशेषज्ञों की मानें तो जादूगरों की राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हैं क्योंकि जादुई करिश्मों से वह संदेश देने की कोशिश करते हैं। 

         जादूगर ओ. पी. शर्मा के जादुई पिटारे में कन्या भ्रूण हत्या, अशिक्षा, अंधविश्वास, दहेज उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, प्रकृति रक्षा, परिवार नियोजन, नशाखोरी, लालच, एड्स आदि को रेखांकित करने वाली सामाजिक कुरीतियां शामिल हैं। कन्या भ्रुण हत्या में जादूगर दिखाते हैं कि किस प्रकार गर्भ में बालिकाओं की हत्या की जा रही है। दहेज उत्पीड़न को देखते हुए कोई नहीं चाहता कि उसके घर बालिका जन्मे। परिणाम देश में बालक-बालिका के जन्म का अनुपात या संतुलन बिगड़ रहा है। जादू का यह रंग कहीं न कहीं समाज को चिंतन के लिए विवश करता है। जादू के पिटारा से भ्रष्टाचार का राक्षस निकलता है। भ्रष्टाचार के राक्षस को राजनीति पालसी पोसती है लेकिन जब राष्ट्र जागृत होता है तो सभी का पतन हो जाता है। 

       सांइस एण्ड टेक्नालाजी का ही कमाल है कि स्क्रीन से निकल कर कलाकार बाहर शो में आ जाता है। नामचीन जादूगर ओ.पी. शर्मा कहते हैं कि जादू को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। जिस प्रकार दादी-नानी की कहानियां बच्चों को सकारात्मक संदेश देती हैं, उसी तरह से जादू से बच्चों को संस्कार व राष्ट्र निर्माण का संदेश दिया जाना चाहिए क्योंकि बच्चे ही कल का भविष्य हैं। जादूगर ओ. पी. शर्मा व उनके बेटे सत्य प्रकाश शर्मा (जूनियर ओ. पी. शर्मा ) सयंुक्त रूप से जादुई शो दिखाते हैं। जादूगर ओ. पी. शर्मा की मानें तो जादू कोई करिश्मा नहीं बल्कि साइंस एण्ड टेक्नॉलाजी एवं कला का एक ऐसा समिश्रण है जिससे दर्शक रोमांचित हो जाते हैं। चिता में बैठ कर खुद को जला लेना, रेलवे लाइन में खुद को बांध लेना आैर ट्रेन का उपर से गुजर जाना, आरा से युवक-युवती को काट देना, हवा में गायब कर देना, .... आदि आदि सब सांइस एण्ड टेक्नालाजी की उपलब्धियां हैं।

          विशेषज्ञों की मानें तो आंख से देखने की स्पीड से कहीं अधिक तेज स्पीड में जादूगर को अपना काम करना होता है। एक तरह से कहा जाये कि जादू चातुर्य कला है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। हालांकि जादू शो का संचालन एक इण्डस्ट्री की तरह खर्चीला है क्योंकि शो के उपकरण जुटाना आर्थिक संसाधन के बिना आसान नहीं है। हालांकि इस इण्डस्ट्री में जादू के शौकिया लोग कम ही आना चाहते है क्योंकि इसमें रिटर्न भी इतना आसान नहीं है। जादूगर ओ. पी. शर्मा की मानें तो जादू का शो संचालित करने के लिए एक उद्योग की तरह काम करना होता है। जादूगर ओ. पी. शर्मा के जादुई शो में दस इंजीनियर्स की भूमिका रहती है। उनकी इस टीम में दस इंजीनियर्स के अलावा चार्टेड एकाउण्टेण्ट, वकील, मैनेजर, कम्प्यूटर इंजीनियर, टेक्नीशियन सहित करीब दौ सौ लोगों की लम्बी चौड़ी फौज होती है। सभी की अपनी जिम्मेदारियांं होती हैं। बताते हैं कि इनमें से 70 से 75 सहयोगियों की भूमिका मंच पर होती है जबकि अन्य सहयोगियों की भूमिका मंच से परे होती है।   

        विशेषज्ञों की मानें तो जादू में पशु-पक्षियों की भूमिका का विशेष ख्याल रखा जाता है क्योंकि पशु-पक्षी भी कहीं न कहीं मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं। पशु-पक्षियों को जादू में भूमिका को ध्यान में रख कर विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। संगीत की स्वरलहरियों को सुन कर पशु-पक्षी अपनी भूमिका को समझ लेते हैं। इसी के साथ ही वह अपनी सक्रियता को जारी रखते हैं। जूनियर ओ.पी. शर्मा (सत्य प्रकाश शर्मा ) की मानें तो शिक्षाप्रद जादुई चमत्कारों से समाज में सकारात्मक सोच का बदलाव लाया जा सकता है। जादू हंसी-ठहाका, रोमांच, रहस्य, चिंतन-मनन व संदेश आदि सभी कुछ देता है। जहांगीर नामा में इण्डियन रोप ट्रिक का उल्लेख मिलता है। जिसमें जादूगर रस्सी पर चढ़ कर गायब हो जाता है लेकिन आज सांइस एण्ड टेक्नालाजी इससे कहीं आगे निकल चुका है। साइंस एण्ड टेक्नालाजी का उपयोग जादू में संदेशपरक होने से समाज में कुछ-न-कुछ कहीं न कहीं बदलाव अवश्य आयेगा। 

                          

Friday, December 23, 2016

सिद्धेश्वर मंदिर : हर मनोकामना पूर्ण

  
       स्वाधीनता आंदोलन की बात हो या धर्म-आध्यात्म का प्रसंग हो, कानपुर का अपना एक अलग ही अंदाज रहा। कानपुुर को छोटी काशी कहा जाये या क्रांतिकारियों की रणभूमि कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी।

         गंगा तट पर बसे आैद्योगिक शहर कानपुर का कोई सानी नहीं दिखता। शहर के पूर्वी इलाका जाजमऊ शिव स्थान के तौर पर अपनी पहचान रखता है। जाजमऊ का शिव स्थान 'सिद्धेश्वर मंदिर" से ख्याति प्राप्त है। इसे कानपुर का 'स्वर्ण मंदिर" कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि चाहे शिखर के कलश हों या शिवलिंग या फिर अरघा, सभी रजत से लेकर स्वर्ण जड़ित है। कोई यह नहीं बता सकता कि इस स्वर्ण मंदिर में कितनी तादाद में स्वर्ण एवं रजत का उपयोग किया गया है लेकिन इतना अवश्य है कि स्वर्ण एवं रजत आभा का अपना एक अलग ही आलोक है। 

              किवदंती है कि भगवान शिव यहां स्वयं विराजमान हैं। पुरातनकाल में जाजमऊ में राजा जयाद का राज्य था। राजा जयाद धार्मिक पृवत्ति के थे लिहाजा सिद्धनाथ दरबार की स्थापना उनके शासनकाल में ही हुयी। किवदंती है कि राजा जयाद भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। राजा जयाद ने शिव की घोर उपासना-तपस्या की जिस पर भगवान शिव प्रसन्न हुये आैर प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा। राजा जयाद अतिप्रसन्न थे। राजा ने वरदान मांगा कि आप जाजमऊ में ही बस जाइए। भगवान शिव ने कहा कि सौ यज्ञ पूर्ण करो। इच्छा की पूर्ति होगी। राजा ने 99 यज्ञ पूर्ण कर लिये लेकिन 100 यज्ञ में इन्द्रदेव ने विघ्न डाल दिया जिससे सौ यज्ञ पूर्ण नहीं हो सके। समयकाल गुजरने के साथ ही स्थितियां भी बदलती गयीं। राजा जयाद गौशाला की एक ही गाय के दुग्ध का सेवन करते थे। खास बात यह थी कि इस गाय के पांच थन थे। यह गाय जाजमऊ टीला पर दुग्धदान करती थी। गुप्तचरों से जानकारी मिली तो राजा को कौतुहल हुआ। 
      

          दुग्धदान वाले स्थल की खोदाई करायी गयी तो उसमें भगवान शिव का शिवलिंग प्राक्ट्य हुआ। उसी स्थान पर सिद्धेश्वर मंदिर है। शिवलिंग के प्राक्ट्य के बाद राजा जयाद ने शिव मंदिर का निर्माण कराया। कहावत है कि भगवान शिव स्वयं यहां विराजमान हैं। जाजमऊ हिन्दू-मुस्लिम मिली जुली आबादी वाला क्षेत्र है। मुस्लिम आबादी करीब अस्सी प्रतिशत है जबकि हिन्दू आबादी करीब बीस प्रतिशत है। इस इलाके में कभी भी साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुये। यह स्थान क्रांतिकारियों का रणनीतिक स्थल भी रहा। क्रांतिकारियों की रणनीति इस स्थान पर भी बनती रही। श्रावण मास में सिद्धेश्वर के दर्शन-पूजन-अर्चन के लिए बड़ी संख्या श्रद्धालु आते हैं। मान्यता है कि श्रद्धालुओं को यहां इक्षित वरदान की प्राप्ति होती है।     


Thursday, December 22, 2016

जरीब चौकी : आैद्योगिक हलचल तो रिहायश भी 

  
       उत्तर प्रदेश की आैद्योगिक राजधानी कानपुर का कोना-कोना अपनी अलग एवं खास पहचान रखता है। चाहे वह मंदिर श्रंखला के तौर पर हो या कारोबारी इलाके शक्ल में हो। 

खास बात यह दिल्ली हावड़ा के मुख्य मार्ग पर परिवहन की व्यवस्थायें भले ही कमजोर हों लेकिन एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ने के संसाधन-आधारभूत ढ़ाचा में कहीं कोई कमी नहीं। इस शहर के मध्य से ग्रांड ट्रंक रोड (जी. टी. रोड) गुजरता है तो वहीं कालपी रोड भी यहां से होकर निकलता है। शहर में इन दोनों मुख्य मार्गों का संगम स्थल भी है। इस स्थान को जरीब चौकी चौराहा के तौर पर जाना जाता है। जरीब चौकी चौराहा पर जी टी रोड व कालपी रोड़ एक दूसरे को क्रास करते हैं। जरीब चौकी शहर का खास इलाका माना-पहचाना जाता है। जरीब चौकी खास तौर से एक अतिमिश्रित इलाका है। इस क्षेत्र में गरीब के झोपडे़ हैं तो वहीं शहर के धनाढ्य वर्ग रिहायश भी है। सस्ते एवं अच्छे भोजनालय हैं तो वहीं कारोबार क्षेत्र भी है। 

            आैद्योगिक क्षेत्र भी यहां खास है। जरीब चौकी का नाम भले ही चौकी अर्थात चौक या फिर चौराहा हो, वस्तुत इस स्थान से शहर के विभिन्न इलाकों को जोड़ने वाले पांच मुख्य मार्ग निकलते हैं। जरीब चौकी से पूर्व दिशा की ओर जाने वाला जी. टी. रोड फतेहपुर, इलाहाबाद होते हुये हावड़ा को चला जाता है। इस मुख्य मार्ग पर आैद्योगिक इकाइयों के साथ ही अब आलीशान शोरुम्स शोभा बढ़ा रहे हैं। कभी इस इलाके में सिंह इंजीनियरिंग्स सहित कई नामचीन इकाईयां आबाद थीं। इसके ठीक बगल से पूर्व दिशा में कालपी रोड गुजरती है। यह सड़क सीधे कानपुर सेंट्रल  रेलवे स्टेशन (घंटाघर) से जोड़ती है। बॉलीवुड के मजे लेने हों तो संगीत सिनेमा हाल है तो वहीं खान-पान के लईया-पट्टी-गजक सहित बहुत कुछ मिलेगा। अलमारी की खरीद करनी हो या सोफा लेना हो, बहुत बड़ा मार्केट मिलेगा। 

             इसके उत्तर दिशा में पी. रोड है। पी. रोड सीसामऊ बाजार, गांधी नगर एवं रामबाग सहित कई इलाकों को जोड़ता है। सीसामऊ बाजार सस्ता व गुणवत्तापरक कपड़ा के लिए खास तौर से विख्र्यात है। यह रिहायशी व व्यापारिक मिला-जुला इलाका है। पश्चिम दिशा की ओर जाने वाला मुख्य मार्ग जी. टी रोड है। यह मुख्य मार्ग गुमटी नम्बर पांच से रावतपुर होते हुये कल्याणपुर आदि इलाकों को जोड़ता है। इस सड़क पर टिम्बर के कारखाने हैं तो वहीं मोटर पार्टस सहित टायर-ट्यूब की बड़ी दुकाने हैं।

गुमटी गुरुद्वारा भी इसी सड़क पर है। ह्मदय रोग संस्थान सहित कई चिकित्सा संस्थान भी इसी मार्ग पर हैं। जरीब चौकी से पश्चिम की ओर जाने वाले कालपी रोड पर शहर का एक बड़ा आैद्यंोगिक आस्थान है। कालपी रोड आैद्योगिक आस्थान में आैद्योगिक क्रियाकलाप के अलावा कल-कारखानों के साथ साथ ट्रक-मोटर्स के सुधार-मरम्मत का कार्य भी होता है। जरीब चौकी चौराहा पर एक छोटा किन्तु सुन्दर पार्क है। इसकी देखरेख नगर निगम के अधीनस्थ है। इस पार्क में महाराणा प्रताप की घोडे पर सवार प्रतिमा स्थापित है। यह शहर का अतिव्यस्तम एवं भीड़भाड़ वाला इलाका है।  

Wednesday, December 21, 2016

पेशवा की विरासत : बनखण्डेश्वर महादेव मंदिर

  
       आस्था, विश्वास एंव श्रद्धा के स्थल भी स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारियों के केन्द्र बने थे। सामान्यत: धर्म स्थल या पूजा-पाठ के स्थल पूजन-अर्चन तक ही सीमित रहते हैं लेकिन ऐसा नहीं। बिठूर स्थित भगवान शिव का मंदिर बनखण्डेश्वर महादेव का मंदिर आस्था, विश्वास एवं श्रद्धा के साथ साथ क्रांतिकारियों का केन्द्र भी था। बिठूर स्थित बनखण्डेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना भी क्रांतिकारियों ने की थी। श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास के इस केन्द्र को पेशवा की विरासत कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। किवदंतियों की मानें तो बाजीराव पेशवा एक बार बिठूर आ रहे थे। मंधना के पास जंगल में रात हो गयी तो पेशवा ने जंगल में ही डेरा डाल दिया। सुबह पेशवा की नींद खुली तो देखा टीले पर एक गाय खड़ी है। 

गाय टीले पर दुग्धदान कर रही है। टीला बेल के पत्तों से ढ़का था। बाजीराव पेशवा को यह सब देख कर आश्चर्य हुआ। पेशवा ने टीला स्थल को कौतुहलवश खोदवाया तो शिवलिंग का प्राक्ट्य हुआ। विधि-विधान से शिवलिंग की स्थापना की गयी। बाजीराव पेशवा ने लक्ष्मीबाई का कर्णछेदन भी इसी स्थान पर कराया था। हर्ष-खुशी में बाजीराव पेशवा ने जयपुर से अन्य शिवलिंग मंगा कर उसी स्थान पर स्थापित कराया था। चूंकि यह वन क्षेत्र था लिहाजा ग्रामीणों के बीच 'बनखण्डेश्वर महादेव" की ख्याति हुयी। अब इस धर्म स्थल को बनखण्डेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है।

 उसी काल से इस स्थल पर दो शिवलिंग स्थापित हैं। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पेशवा की लड़ाई की रणनीति भी इसी स्थल पर बनती थी। बाजीराव पेशवा ने तात्याटोपे के साथ मिल कर इसी स्थान पर मैस्कर घाट पर हमले की रणनीति बनायी थी। बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हमला बोलने से पहले पेशवा बनखण्डेश्वर महादेव के दर्शन करने अवश्य जाते थे। मंदिर में माथा टेकने के बाद ही लड़ाई-सघर्ष के लिए आगे बढ़ते थे। यही वह स्थान है, जहां बाजीराव पेशवा ने तात्याटोपे को अपना सिपहसलार बनाया था। भेंट स्वरुप तात्या को टोपी दी थी। इसी के बाद तात्या का नाम टोपे पड़ गया। स्वाधीनता आंदोलन की अधिसंख्य रणनीति इसी स्थान पर बनती थी। आस्था है कि बेल पत्र पर अपनी मनौती लिख कर बनखण्डेश्वर महादेव को अर्पित करने से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है। शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर की मान्यता यह भी है कि श्रावण मास में एक सौ एक बेल पत्र बनखण्डेश्वर महादेव को अर्पित करने से मनोकामना पूर्ण होती है। 

ब्रिटिश हुकूमत व स्वाधीनता आंदोलन की जंग में ब्रिाटिश हुकूमत को सतना में पेशवा का खजाना नहीं मिला तो ब्रिटिश हुकूमत खिसिया गयी। ब्रिाटिश हुकूमत को पता चला कि पेशवा ने अपना खजाना बिठूर-मंधना स्थित मंदिर में छिपा रखा है। खजाना हासिल करने के लिए ब्रिाटिश हुकूमत ने मंदिर में हमला बोल दिया लेकिन ब्रिाटिश सैनिकों को उल्टे पांव भागना पड़ा क्योंकि सांप-बिच्छू एवं मधुमक्खियों ने सैनिकों पर हमला बोल दिया था। बताते हैं कि भगवान शिव के इस स्वरुप अर्थात बनखण्डेश्वर महादेव मंदिर की रक्षा-सुरक्षा आज भी सांप-बिच्छू व मधुमक्खियां करते हैं। खास बात यह है कि बनखण्डेश्वर महादेव की तीन प्रहर पूजन-अर्चन किया जाता है। खास तौर से श्रावण मास में भव्यता अलग ही रहती है। बाजीराव पेशवा ने बनखण्डेश्वर महादेव के पूजन-अर्चन के लिए बिठूर के एक ब्रााह्मण को रखा था। उसी परिवार का ब्रााह्मण अभी पूजन-अर्चन करता-कराता है। श्रावण मास में इसी क्षेत्र में भव्य-दिव्य मेला लगता है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु-भक्त दर्शन-पूजन एवं मनौती के लिए आते हैं। 

Tuesday, December 20, 2016

एल्गिन मिल्स : डेढ़ सौ वर्ष का सफर पूरा

  
       'आवश्यकता" न हो तो कुछ भी न हो। या यूं कहें कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। उत्तर प्रदेश का कानपुर शहर यूं ही 'एशिया का मैनचेस्टर" नहीं बना। कुछ आवश्यकता ही थी कि ब्रिाटिश हुक्मरानों को कानपुर को आैद्योगिक राजधानी के तौर पर विकसित करना पड़ा। शहर का विकास होने से आवश्यकतायें भी बढ़ने लगीं।  

कानपुर का एल्गिन मिल शायद शहर का पहला बड़ा मिल बना। विशेषज्ञों की मानें तो कपास से वस्त्र उत्पादन करने वाला एल्गिन मिल शहर का पहला मिल था। अब तो यह मिल स्थापना के एक सौ पचास वर्ष अर्थात वर्षगांठ मना चुका है। इस मिल की स्थापना 1864 में एल्गिन मिल्स के तौर पर की गयी थी। एल्गिन मिल्स ब्रिाटिश इण्डिया कारपोरेशन की सहायक कम्पनी के तौर पर स्थापित हुयी थी। स्थापना से अब तक डेढ़ सौ वर्ष से भी अधिक समय में एल्गिन मिल्स ने असंख्य उतार-चढ़ाव देखे। श्रमिक संघर्ष भी दिखा तो वहीं एल्गिन मिल्स में उत्पादन को पुन: चालू करने की तमाम कोशिशें भी हुयीं। डेढ़ सौ वर्ष के इस सफर में जहां एक ओर मिल ने हजारों रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये तो वहीं इस मिल का वस्त्र उत्पाद देश-विदेश तक पहंुचता रहा।


 विशेषज्ञों की मानें तो देश की स्वाधीनता से पहले ब्रिाटिश सैनिकों को कपड़ा व अन्य उपयोग की आवश्यकताओं की उपलब्धता को ध्यान रख कर मिल की स्थापना की गयी। कपास से विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उत्पादन किया जाता था। ब्रिाटिश सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ कपड़ा उत्पाद देश एवं विदेशों को भेजा जाता था। यह कहा जाये कि पूर्वांचल सहित आसपास के इलाकों के लोगों को रोजगार भी मिला। शनै: शनै: मिल बीमार होने लगी। मिल का पुनरुद्धार करने की कोशिशें भी हुयीं। आैद्योगिक एवं वित्तीय पुर्ननिर्माण बोर्ड ने वित्तीय सहायता के तौर पर 193 करोड़ का आर्थिक पैकेज दिया गया जिससे मशीनरी का बदलाव एवं श्रमिकों का बकाया वेतन भुगतान किया जा सके। बोर्ड ने प्रस्ताव पारित कर एक बार फिर करघों को बेंच कर 15 करोड़ की धनराशि जुटायी गयी। कुछ समय मिल चलने के बाद एक बार फिर स्पीड ब्रोकर आ गया। इसके बाद केन्द्रीय आर्थिक सहायता का दौर निरन्तर जारी रहा। पार्वती बागला रोड स्थित इस मिल से ताल्लुक रखने वाली अरबों की सम्पत्तियां अभी भी हैं।  


Monday, December 19, 2016

वीआईपी रोड : शहर की अतिविशिष्ट झलक

  
       कानपुर शहर की शान 'वीआईपी" रोड। वीआईपी रोड शहर की शान हो भी क्यों नहीं। शासन-सत्ता के गलियारों की कोई विशिष्ट हस्ती को शहर से गुजरना हो या घनी आबादी को छोड़ कर शहर क्रास करना हो या फिर शहर के अतिविशिष्ट रिहायशी इलाको को एक दृष्टि अवलोकित करना हो तो इस वीआईपी रोड से गुजरना पड़ेगा। हालांकि शहर को क्रास करने के लिए अब तो हाईवे उपलब्ध है लेकिन वीआईपी रोड भी एक आसान, साफ-सुथरा व सुगम यातायात का एक विकल्प है।

वीआईपी रोड शहर को ग्रांड ट्रंक रोड (जीटी रोड) से जोड़ता है तो वहीं शहर का एक अंदाज भी इस सड़क से गुजरने पर दिख जाता है। मॉल रोड से प्रारम्भ होकर कम्पनी बाग चौराहा तक जाने वाले वीआईपी रोड करीब छह किलो लम्बा सफर है। यूं कहा जाये कि वीआईपी रोड शहर की धड़कन है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। इस वीआईपी रोड को पार्वती बागला रोड के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि यह रोड मॉल रोड से प्रारम्भ होकर कम्पनी बाग होते हुये रावतपुर को जोड़ता है। मॉल रोड से इस रोड पर प्रवेश करते ही शासकीय अफसरों के दफ्तरों से लेकर उनके शानदार-आलीशान आशियानों की एक श्रंखला प्रारम्भ होती है। आलीशान आशियानों की यह श्रंखला कम्पनी बाग दिखती है। इसी रोड पर कचहरी (कलेक्ट्रेट) है तो उसके ठीक सामने जिला कारागार है। पुलिस लाइन भी इसी इलाके में है। पुुलिस लाइन के ठीक चंद कदम के बाद गोरा कब्रिास्तान है। इस कब्रिास्तान को पुर्तगाली कारीगरों ने अपने हुनर से तराशा था। वस्तुत: यह ब्रिाटिश सैनिकों का कब्रागाह है। इसी रोड पर क्रिकेट प्रेमियों का विशाल खेलमैदान 'ग्रीनपार्क" है।


उत्तर प्रदेश स्टॉक एक्सचेंज भी इसी इलाके में दृश्यावलोकित होता है। शहर के शानदार प्रेक्षागृह में शुमार मर्चेन्ट्स चेम्बर भी इसी रोड है। वस्तुत: इसे नाट्य हलचल का केन्द्र कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज से भी यह स्थान शहर में अव्वल है। निजी नर्सिंग होम्स के अलावा जार्जिया मैकरॉबर्ट मेमोरियल अस्पताल की सेवायें भी इसी क्षेत्र में उपलब्ध होती है। एल्गिन मिल्स भी इस रोड की शान है। एल्गिन मिल्स शायद शहर की पहली कपास मिल है। इसी स्थान पर उत्तर प्रदेश वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान है। संस्थान से प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में छात्र तकनीकि ज्ञानार्जन कर निकलते हैं। खास बात यह कि शहर के अधिसंख्य बाशिंदों की अंतिम यात्रा इस मार्ग से ही पूूर्ण होती है क्योंकि चाहे भगवतदास श्मशान घाट जाना हो या फिर भैंरोंघाट श्मशान घाट, इस वीआईपी रोड से ही गुजरना होता है। हालांकि यह दोनों ही श्मशान घाट गंगा तट पर हैं लेकिन श्मशान घाट की सड़कों का जुड़ाव वीआईपी रोड से है।  


Sunday, December 18, 2016

मां कुष्माण्डा देवी : जल करे रोगी को निरोग
 
        रोगों से मुक्ति पाएं। मां कुण्माण्डा देवी के चरणों के जल को ग्रहण करें। निश्चय ही शरीर स्वस्थ्य एवं निरोगी होगा। 'मां कुष्माण्डा देवी" के भक्तों-श्रद्धालुओं के बीच तो यही मान्यता है। मां कुष्माण्डा देवी के चरणों का जल नेत्ररोगों में भी लाभकारी है। कानपुर शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर घाटमपुर में स्थित मां भगवती के इस स्वरुप के दर्शन करने बड़ी संख्या में भक्त उमड़ते हैं। करीब एक हजार वर्ष पुराने इस मंदिर की अपनी एक अलग गाथा है। मंदिर में मां भगवती के इस स्वरुप की लेटी प्रतिमा है। मां का यह स्वरुप एक पिण्डी के रुप में है। खासियत यह है कि प्रतिमा से जल का रिसाव अनवरत होता रहता है। मान्यता है कि इस जल को ग्रहण करने से सभी प्रकार के असाधारण-असाध्य एवं सामान्य रोग का निवारण हो जाता है। नेत्र रोग में इस जल को आंखों में लगाने से लाभ मिलता है। 

सूर्योदय से पूर्व स्नान कर मां भगवती कुष्माण्डा के दर्शन कर जल ग्रहण करने से निश्चित कोई भी असाध्य रोग हो, ठीक हो जाता है। छह माह तक जल ग्रहण करने से शरीर पूर्णतय: स्वस्थ्य हो जाता है। प्रतिमा से जल का रिसाव कैसे व कहां से होता है ? यह रहस्य बना हुआ है। इस रहस्य को वैज्ञानिक भी नहीं खोज पाए। इस मंदिर-मठिया का निर्माण राजा दर्शन ने वर्ष 1380 में कराया था। यह स्थान मां की मठिया के रुप में था। किवंदती है कि घाटमपुर के इस इलाके में प्राचीनकाल में घना जंगल था। कुड़हा नामक ग्वाला गाय चराने इस जंगल में आता था। ग्वाला गाय तो चराता लेकिन गाय दुग्धदान नहीं करती। इससे ग्वाला परेशान था। अन्तोगत्वा, एक दिन ग्वाला ने देखा कि एक स्थान पर गाय ने दुग्धदान किया।


 रात्रिकाल में मां भगवती ने ग्वाला का स्वप्न दिया कि दुग्धदान का स्थान मां भगवती का स्थान है। ग्वाला ने यह स्वप्न राजा दर्शन को बताया। इसके बाद ग्वाला ने उस स्थान की खोदाई करायी तो मां भगवती के इस स्वरुप पिण्डी का प्राक्ट्य हुआ। ग्वाला कुड़हा व अन्य ग्रामीणों ने मां भगवती के इस स्वरुप पिण्डी को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया। पिण्डी से जल रिसाव हो रहा था। यह देख ग्रामीण आश्चर्यचकित थे। जल को ग्रामीणों ने प्रसाद के तौर पर ग्रहण किया। बाद में राजा दर्शन ने इस स्थान पर मठिया-मंदिर का निर्माण कराया। ग्वाला का नाम कुड़हा था लिहाजा इलाके में कुड़हा देवी के नाम से भगवती के इस स्वरुप की ख्याति हुयी। अब मां भगवती के इस स्वरुप को कुड़हा देवी एवं कुष्माण्डा देवी के तौर पर ख्याति है। मां भगवती के इस स्वरुप को सती के चौथा अंश माना जाता है। शारदीय एवं चैत्र नवरात्र में मंदिर क्षेत्र में विशाल एवं भव्य मेला लगता है। 

इसे आसपास के इलाके का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। मनोकामना के लिए भक्त एवं श्रद्धालु माता को चुनरी, ध्वजा, नारियल, घंटा आदि भेंट स्वरुप चढ़ाते हैं। पुआ व भीगे चने भी मां को अपर्ण किये जाते हैं। बताते हैं कि 1890 में चंदीदीन भुर्जी ने इस मंदिर का भव्य-दिव्य निर्माण कराया था। वर्ष 1988 सितम्बर से मंदिर में मां कुष्माण्डा की अखण्ड ज्योति जल रही है। मंदिर परिसर में ही दो विशाल एवं भव्य तालाब हैं। इन तालाब में भक्त एवं श्रद्धालु स्नान करते है तो श्री कृष्ण की नाग नाथने की लीला भी इसी जलक्षेत्र में होती है। इस अवसर पर विशाल मेला लगता है। खास बात यह है कि यह तालाब कभी नहीं सूखते। इस जलाशय का जल मां को अर्पित किया जाता है। नवरात्र की चतुर्थी को मां कुष्माण्डा देवी मंदिर परिसर में दीपदान महोत्सव भी होता है। इस दीपदान महोत्सव को देखने दूरदराज से भक्त बड़ी संख्या में आते है। श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास का यह केन्द्र अब पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा है।   

Friday, December 16, 2016

मां बुद्धादेवी मंदिर :
भोग में सिर्फ हरी सब्जियां
  
       कानपुर को आैद्यागिक राजधानी के साथ ही मंदिरों का शहर कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। मंदिर श्रंखला प्राचीनकाल की। शहर के ह्मदयस्थल खोया बाजार-मेस्टन रोड इलाके में मां भगवती बुद्धादेवी का प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर की भी अपनी मान्यताएं एवं परम्पराएं हैं। शहर के खोया बाजार-हटिया बाजार के मध्य स्थित इस मंदिर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अनवरत बनी रहती है। खास तौर से नवरात्र के दिनों में तो श्रद्धालुओं की अपार भीड़ होना लाजिमी हो जाता है। श्रद्धालुओं के हाथों में फूूल-प्रसाद की डलिया व मां भगवती के जयघोष से अनुगूंजित नारों से परिवेश। खास बात यह है कि मां भगवती बुद्धा देवी को प्रसाद में ताजी एवं हरी सब्जियां ही भेंट की जाती है। सब्जियों में मसलन लौकी, बैंगन, पालक, टमाटर, गाजर, मूली, तरोई, हरी मटर, सीताफल, टीण्डा, भिण्डी एवं आलू आदि मां को प्रसाद में भेंट किये जाते है। मां भगवती के इस स्वरुप को मां बुद्धादेवी के नाम से ख्याति मिली। गौरतलब है कि इस मंदिर में न तो कोई पुजारी है आैर न कोई पुरोहित। 


माली ही मंदिर की व्यवस्था संभालते हैं। मंदिर सौ वर्ष से अधिक पुराना है। प्राचीनकाल में इस स्थान पर फूल-पौधों से आच्छादित बागीचा था। इस बागीचा की देखरेख माली परिवार करता था। माली परिवार के मुखिया को रात स्वप्न में मां भगवती ने दर्शन दिये। स्वप्न एवं दर्शन का सिलसिला अनवरत चलता रहा। अन्तोगत्वा, माली ने बागीचा में खोदाई करायी तो खोदाई में मां भगवती के इस स्वरुप का प्राक्ट्य हुआ। खोदाई दिन तक अनवरत चली। मां भगवती के इस स्वरुप बुद्धादेवी की स्थापना के लिए चबूतरा बना। चबूतरा पर मां बुद्धादेवी की स्थापना की गयी। चूंकि मां बुद्धादेवी का प्राक्ट्य बागीचा से हुआ लिहाजा भक्त-श्रद्धालु प्रसाद में ताजी एवं हरी सब्जियां चढ़ाने लगे। धीरे-धीरे प्रसाद में हरी एवं ताजी सब्जी चढ़ाने की परम्परा बन गयी। शनै: शनै: चबूतरा ने भी मंदिर का स्वरुप ले लिया। मान्यता है कि मां बुद्धादेवी अपने भक्तों की हर मुराद पूरी करती है।   


Thursday, December 15, 2016


मूलगंज : बाबू जी क्या क्या खरीदोगे !
सुबह 'दिहाड़ी मजदूर मण्डी" दिन भर बाजार आबाद  
            कानपुर शहर का 'मूलगंज" ! जी हां, यह इलाका मूलगंज अपने खास अंदाज के लिए शहर क्या आसपास के इलाकों में खासा पहचाना जाता है। 'मूलगंज" का नाम आते ही किसी के चेहरे पर मुस्कान नाच उठती है तो वहीं खास-ओ-आम के बाजार का अक्स उभरता है।

              'मूूलगंज" अपने आप में एक समग्र बाजार। दिहाड़ी मजदूर चाहिए या र्इंजन चाहिए या फिर कपड़े-लत्ते नये-पुराने कुछ भी या फिर जिस्म की भूख मिटानी हो। हर जरुरत पूरी करे सिर्फ 'मूलगंज"। हालांकि 'मूलगंज" की चारों दिशाओं में अलग-अलग मुख्य मार्ग-अलग-अलग मुख्य मार्केट। फिर भी समग्रता में चौतरफा इलाका मूलगंज ही माना जाता है। 'मूलगंज" चौराहा से पूूरब की ओर मेस्टन रोड, पश्चिम में लाटूश रोड, उत्तर में नई सड़क आैर दक्षिण में हालसी रोड का इलाका आता है।

'मूलगंज" चौराहा पर सुबह 'दिहाडी मजदूर मण्डी" आबाद होती है तो वहीं दिन भर से रात तक व्यापारिक चहल-पहल रहती है। 'दिहाड़ी मजदूर मण्डी" में शायद ही कोई ऐसा किस्म हो जिसका मजदूर न मिले। मूलगंज चौराहा-चौक ने भी शहर का इतिहास देखा। स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारियों के तेवर देखे तो वहीं देश में लोकसभा से लेकर राष्ट्रपति तक चुनाव लड़ने वाले भगवती प्रसाद दीक्षित 'घोड़े वाला" की जनसभायें भी देखीं। 'घोड़े वाला" की जनसभाओं में चौक-चौराहा खचाखच भरा रहता था। कहीं पैर रखने की जगह नहीं होती थी।


           अब तो इस इलाके में शहर का सबसे बड़ा जूता-चप्पल मार्केट सज गया।  फिर भी 'बाबूजी" धीरे चलना जरा संभलना बड़े धोखे हैं इस राह में.... जी हां, मूलगंज 'नगर बधुओं" का इलाका भी है। 'नगर बधुओं" से मुलाकात-मुस्कान किसी के चेहरे को खिला देती है तो किसी को बर्बाद भी कर देती है। 'मूलगंज" के इस हसीन बाजार को 'रोटी वाली गली" व 'नील वाली गली" के नाम से जाना जाता है। हालांकि 'नगर बधुओं" को प्रशासन के तेवर देख कर मूलगंज का यह इलाका छोड़ना पड़ा। फिर भी 'नगर बधुओं" की रौनक से इलाका आबाद रहता है। मूलगंज का लाटूश रोड इलाका मशीनरी उद्योग-कारोबार का क्षेत्र है।


            चाहे सिलाई मशीन की खरीद करनी हो या डीजल र्इंजन-पम्प चाहिए। खराद से लेकर छोटे-बड़े मशीनरी पुर्जे भी इस बाजार में उपलब्ध होते हैं। मूलगंज-मेस्टन रोड इलाके के बाजारों के घर गृहस्थी का छोटा से बड़ा हर सामान उपलब्ध रहता है। चाहे बिजली का सामान खरीदना हो या फिर कपड़े-लत्ते की खरीदारी करनी हो। खास यह कि मूलगंज का दिल शहर के लिए धड़कता है तो वहीं शहर का दिल भी मूलगंज के लिए धड़कता है। मूलगंज में देशी घी के स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध होते हैं तो वहीं खोया बाजार भी स्वाद को बढ़ाता है। मूलगंज के खोया-मावा की ख्याति दूर-दूर तक है। आसपास के व्यापारी इसी बाजार में दुग्ध उत्पाद बेंचने आते हैं। वहीं मूलगंज का नई सड़क इलाका 'दबंगों" के नाम हमेशा से रहा।



  






Wednesday, December 14, 2016

आनन्देश्वर मंदिर 
श्रद्धालुओं की अगाध श्रद्धा
दर्शन से क्लेश कटे, द्वैश खत्म
 
       मेगा सिटी कानपुर को 'छोटी काशी" कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। 'छोटी काशी" से आशय यह है कि शहर में सौ से अधिक मंदिर श्रंखला विद्यमान है। ब्राह्ममुहूर्त से ही शहर घंटा-घडियाल के घोष-टंकार से अनुगूंजित होने लगता है। शहर का एक ऐसा ही स्थान बाबा आनन्देश्वर मंदिर है। गंगातट परमट पर स्थित बाबा आनन्देश्वर मंदिर में शिव दर्शन के लिए श्रावण मास में भक्तों-श्रद्धालुओं का रेला उमड़ता है। मान्यता है कि बाबा आनन्देश्वर मंदिर में साक्षात शिव दर्शन देते हैं। बाबा आनन्देश्वर मंदिर पुरातनकाल-महाभारतकाल का माना जाता है। किवदंती है कि महाभारतकाल में दानवीर कर्ण भगवान शिव के दर्शन-पूजन-अर्चन के लिए आते थे। इस पूजन-अर्चन के दौरान एक गाय भी आती थी। दानवीर कर्ण के पूजन-अर्चन वाले स्थल पर ही गाय भी दुग्धदान करती थी। राजा कौशल की गायों को परमट गांव चारागाह में चराने चरवाहा आता था। राजा कौशल की गाय आनन्दी दूध नहीं देती थी। जिस पर राजा कौशल ने चरवाहा से नाराजगी व्यक्त की। चरवाहा ने तहकीकात की तो दुग्धदान की हकीकत सामने आयी। चरवाहा ने राजा कौशल को हकीकत से वाकिफ कराया तो राजा कौशल ने उक्त स्थल की खोदाई करायी। जिसमें शिवलिंग प्रकट हुआ।

अनतोगत्वा,  राजा कौशल ने उसी स्थान पर शिवलिंग को प्राण प्रतिष्ठित करा दिया। चूंकि गाय का नाम आनन्दी था लिहाजा, राजा कौशल व बाशिंदों ने शिवमंदिर को बाबा आनन्देश्वर के नाम से ख्याति दी। सोमवार को खास तौर से दर्शनार्थियों की सर्वाधिक भीड़ होती है लेकिन सामान्य दिनों में भी भक्तों-श्रद्धालुओं का दर्शन के लिए तांता लगा रहता है। धर्माचार्यों की मानें तो सोमवार का अंक दो होता है। यह स्थिति चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करती है। चन्द्रमा मन का संकेतक होता है। चन्द्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विद्यमान रहता है। शिव-पार्वती का पूजन अर्चन के साथ ही रुद्राभिषेक भी होता रहता है।

मान्यता है कि बाबा आनन्देश्वर मंदिर में शिव दर्शन करने व सोमवार को व्रत रखने वाले भक्त-श्रद्धालुओं को अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। भगवान शिव पद, प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। बाबा आनन्देश्वर के दर्शन-पूजन-अर्चन के लिए शहर के दर्शनार्थियों-भक्तों-श्रद्धालुओं के अलावा आसपास के इलाकों के अलावा दूर-दराज से भी आते हैं। गंगा के परमट घाट के शीर्ष पर स्थापित बाबा आनन्देश्वर का यह मंदिर अपनी विशिष्टताओं के लिए दूरदराज तक जाना जाता है। मान्यता है कि बाबा आनन्देश्वर के दर्शन मात्र से सारे क्लेश समाप्त हो जाते है। मंदिर में श्रद्धालुओं की अगाध श्रद्धा स्वत: दिखती है। गंगा स्नान के लिए परमट घाट पर सीढ़ियां हैं। हालांकि गंगधारा अब सीढ़ियों से काफी दूर है जिससे श्रद्धालुओं को गंगा स्नान में असुविधा का सामना करना पड़ता है। धर्माचार्यों की मानें तो बाबा आनन्देश्वर का यह मंदिर दो सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। नित्य करीब दस हजार श्रद्धालु शिवलिंग के दर्शन करते हैं। करीब एक एकड़ क्षेत्रफल में फैले इस मंदिर का संचालन पहले ट्रस्ट के हाथों में था लेकिन अब देखरेख जूना अखाड़ा के सानिध्य में होती है।




Tuesday, December 13, 2016


फूलबाग : अतीत का साक्षी
  
       'एशिया का मैनचेस्टर कानपुर" जी हां, हिन्दुस्तान के सबसे बड़े सूबा उत्तर प्रदेश का शहर कानपुर कभी एशिया के मैनचेस्टर का खिताब रखता था। अब भले ही इस शहर ने यह खिताब खो दिया हो लेकिन गौरव-रौनक में कहीं कोई कमी नहीं। कानपुर शहर का ह्मदयस्थल 'फूलबाग"। फूलबाग का भी अपना एक अलग इतिहास है। ब्रिाटिश हुकूमत ने इस स्थान को फूूलबाग का नाम दिया तो स्वाधीनता के बाद इसका नामकरण 'गणेश शंकर विद्यार्थी उद्यान" कर दिया गया। शहर के व्यापारिक एवं अतिविशिष्ट इलाके में शुमार फूलबाग ने अब तक सैकड़ों बसंत देखे। बसंत यूूं कहा जाएगा क्योंकि इसे फूलबाग यूं ही नहीं कहा गया। गंगा नदी से दक्षिण व शहर के माल रोड किनारे एक बड़ा मैदान, इसे फूलबाग कहा गया। फूलबाग का यह बड़ा मैदान अब धीरे-धीरे कई हिस्सों में विभक्त हो गया। बताते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन से पहले फूलबाग के इस मैदान का अधिसंख्य हिस्सा में फूलों की भीनी-भीनी खूशबू से गमकता-महकता रहता था। शनै: शनै: स्थितियां बदलीं। फूलों की शानदार खूशबू से महकने वाला फूलबाग अपनी रौनक खोने लगा। स्वाधीनता आंदोलन के बाद इस मैदान में धूल के गुबार उड़ने लगे। अन्तोगत्वा, एक बार फिर परिवर्तन दिखा।


फूूलबाग के फ्रंट साइड में यादगार शिलाखण्ड के साथ ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थल को शानदार रुपरंग दिया गया। फूूलबाग मैदान के पश्चिमी हिस्से में गणेश शंकर विद्यार्थी उद्यान को मूर्त स्वरुप दिया गया। पेड़-पौधों की हरितिमा से आच्छादित उद्यान अपने अस्तित्व को बचाये हैं। सार्वजनिक समारोह के साथ अन्य आयोजन भी इस स्थल में होते रहते हैं। फूूलबाग का मुख्य मैदान.... यूं कहा जाये कि इस मैदान ने स्वाधीनता आंदोलन से लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के कई आयाम देखे। खुद का इतिहास बना तो शहर का इतिहास बनते देखा। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में सार्वजनिक बैठकों का स्थल बना तो राजनीतिक दलों की रैलियों-जनसभाओं का स्थल बन गया। 

देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय पण्डित जवाहर लाल नेहरू, स्वर्गीय इन्दिरा गांधी, प्रखर वक्ता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी, चौधरी चरण सिंह, श्रीमती सोनिया गांधी, पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव, मेगा स्टार अमिताभ बच्चन सहित देश की असंख्य नामचीन हस्तियों ने इस मैदान से संदेश दिये। इस मैदान ने ब्रिाटिश हुकूमत के हुक्मरानों के बेअंदाज तेवर देखे तो वहीं लोकतंत्र का वास्तविक अंश-स्वरुप भी अवलोकित रहा। ब्रिाटिश हुकूमत ने अपने शासनकाल में इसे महारानी विक्टोरिया गार्डेन के तौर पर पहचान दी लेकिन महारानी विक्टोरिया गार्डेन से कहीं अधिक पहचान फूलबाग के तौर पर रही। फूलबाग शहर की एक खास धरोहर है.... यह कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। 





Monday, December 12, 2016

 बारादेवी मंदिर :  श्रद्धा व आस्था का सैलाब 
  'कानपुर शहर का बारादेवी मंदिर" आस्था, श्रद्धा, विश्वास का सैलाब। जी हां, उत्तर प्रदेश के प्रमुुख शहर कानपुुर के दक्षिणी इलाका में स्थित मां बारादेवी के मंदिर में आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास दिखे तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। मान्यता है कि विश्वास है तो इस सिद्धस्थान पर हर मनोकामना की पूर्ति होगी। किवदंती है कि मां बारादेवी के इस मंदिर में कन्या स्वरुप देवी के बारह स्वरुप विद्यमान हैं। भले ही मंदिर में मां की छवि में बारह देवियों के दर्शन न हों लेकिन मां भगवती के नौ स्वरुप सहित अन्य छवियों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

 बताते हैं कि पिता से अनबन होने के कारण एक परिवार की बहनें घर का परित्याग कर इस स्थान पर आकर प्रतिष्ठापित हो गयीं थीं। मान्यता है कि मां भगवती अर्थात दुर्गा जी के सभी स्वरुप सहित कुल बारह देवी प्राण प्रतिष्ठत हैं। विशेषज्ञों की मानें तो यह करीब 1700 वर्ष पुराना मंदिर है। समय काल के क्रम में विकास होता रहा। शारदीय एवं चैत्र नवरात्र में मां बारा देवी के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का अपार समूह उमड़ता है। अब इस इलाके को ही बारादेवी के नाम से जाना-पहचाना जाता है। नवरात्र में ज्वारा निकलते हैं तो सांग धारी श्रद्धालुओं का उत्साह एवं श्रद्धा को देख कर सहज ही मान्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पुरातात्विक विभाग के सर्वेक्षण की मानें तो मां दुर्गा की प्रतिमा करीब 1700 साल प्राचीन है। ख्याति का आलम है कि बारादेवी के दर्शन के लिए शहर व आसपास के श्रद्धालु भारी तादाद में उमड़ते हैं।





Sunday, December 11, 2016

कानपुर का बिरहाना रोड
आभूषण की चकाचौंध
ज्वैलरी की ख्याति विदेश तक
 
       कानपुर केवल आैद्योगिक राजधानी ही नहीं। सोना-चांदी के कारोबार का भी प्रमुख केन्द्र है। शहर का बिरहाना रोड खास आभूषण-ज्वैलरी की खरीद-फरोख्त के लिए देश ही नहीं दुनिया में भी जाना-पहचाना जाता है। बात चाहे डिजाइनर ज्वैलरी की हो या परम्परागत आभूषण की हो या फिर वैवाहिक आभूषण की पसंद हो अथवा देवी-देवताओं के मुकुट से लेकर क्षत्रशाल की उपलब्धता की हो। बिरहाना रोड का ज्वैलरी मार्केट आभूषण की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

कानपुर शहर की धड़कन के तौर पर अपनी पहचान रखने वाले बिरहाना रोड में दो दर्जन से अधिक भव्य-दिव्य ज्वैलर्स शोरुम संचालित होते हैं। आभूषण का लघु कारोबार भी यहां खूब फलता-फूलता है। कोलकाता की डिजाइन की चाहत हो या फिर दक्षिण भारतीय आभूषण की चांहत हो.... बिरहाना रोड आभूषण की सभी आवश्यकताओं व पसंद को पूरा करता है। ज्वैलरी का यह कारोबार लाखों-करोड़ों नहीं बल्कि अरबोें के टर्नओवर वाला है। इस इलाके से सरकार को राजस्व भी अच्छी तादाद में मिलता है। रत्न-नगीना में भी यह बाजार पीछे नहीं है। दुनिया का कोई भी नग-नगीना चाहिए तो इस बाजार में उपलब्ध होगा। देश-दुनिया में कोलकाता के आभूषण-ज्वैलरी मशहूर है तो कानपुर के कारीगरों का हुनर भी पीछे नहीं ।

 कानपुर के कारीगरों के हाथों गढे आभूषण-ज्वैलरी देश के विभिन्न कोनों सहित दुनिया में भी पसंद किये जाते है। बल्कि यूं कहा जाए कि कानपुर के आभूषण दुनिया की महिलाओं की पसंद बने तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी।  खास यह भी है कि इस मार्केट में आभूषण-ज्वैलरी की प्रदर्शनी भी लगती रहती है। जिससे महिलाओं को नए-नए डिजाइन की ज्वैलरी उपलब्ध होती है। आभूषण-ज्वैलरी की एक प्रतिस्पर्धा सी अनवरत इस मार्केट में चलती रहती है। करीब एक किलोमीटर लम्बे इलाके में फैला आभूषण-ज्वैलरी के कारोबार के साथ ही बिरहाना रोड़ के एक हिस्से में मेडिसिन मार्केट भी है हालांकि दवाओं का यह थोक बाजार है।







Tuesday, December 6, 2016

'लव-कुश बांध"  
सुन्दर एवं पर्यटन स्थल  
गंगा बैराज के नाम से ख्याति प्राप्त  
       'गंगा बैराज कानपुर" शहर को समर्पित यह परियोजना निश्चय ही कानपुर को एक बड़ी सौगात है। गंगा बैराज कानपुर का हालांकि आधिकारिक नामकरण 'लव-कुश बांध" किया गया था लेकिन इसे गंगा बैराज के नाम से ही जाना जाता है। गंगा बैराज केवल एक बैराज अथवा बांध भर नहीं बल्कि कानपुर को लखनऊ-उन्नाव से जोड़ने वाला एक बेहद सेतु भी है। शहर के पश्चिम इलाके में नवाबगंज-आजाद नगर के निकट गंगा पर बना यह बैराज पांच वर्ष की अवधि में बन कर पूर्ण हुआ। वर्ष 1995 में गंगा बैराज बनाने के लिए शिलान्यास किया गया जबकि मई 2000 में विधिवत इसे लोकार्पित कर दिया गया।


करीब छह सौ इक्कीस मीटर लम्बे इस बांध में करीब दो दर्जन गेट लगे हैं। नरोना बांध से करीब एक लाख क्यूसेक गंगा जल इस बांध के लिए नित्य छोड़ा जाता है। हालांकि बारिश का मौसम छोड़ दिया जाए तो एक लाख क्यूसेक गंगा जल की उपलब्धता नहीं होती। फोरलेन फर्राटा सड़क मार्ग की आवाजाही अनवरत बनी रहती है। इसके निर्माण में करीब 303.14 करोड़ की धनराशि खर्च की गयी थी। गंगा बैराज का निर्माण सिचाई विभाग की देखरेख में किया गया। गंगा बैराज के सभी गेट जल की निकासी हेतु नहीं खोले जाते बल्कि आवश्यकता के अनुसार गेट खुलते-बंद होते रहते हैं। गंगा बैराज शहर के सुन्दर एवं पर्यटन स्थलों में से एक है। दिल्ली-नोएड़ा के बोटैनिकल गार्डेन की तर्ज पर गंगा बैराज क्षेत्र में बोटैनिकल गार्डेन बनाने की भी योजना है। बोटैनिकल गार्डेन बन जाने से इस क्षेत्र के सौन्दर्य में आैर भी अधिक निखार आ जायेगा। विद्वानों की मानें तो 'गंगा जल का पान" सौभाग्य से मिलता है। अब यह कहा जाये तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी कि कानपुर के बाशिंदे सौभाग्यशाली हैं क्योंकि उनको पीने के लिए 'गंगाजल" मिल रहा है।

जी हां, गंगा बैराज से शहर के लिए जलापूर्ति की भी व्यवस्था की गयी है। करीब बारह सौ एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) का वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगना है। हालांकि दो सौ एमएलडी क्षमता का वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है बल्कि चालू है। इससे शहर के एक बड़े हिस्से को जलापूर्ति होती है। गंगा बैराज स्थल जहां एक ओर मनोरम एवं खूबसूरत स्थल है तो वहीं बेहद खतरनाक भी है। गंगा बैराज में गंगा स्नान के दौरान अब तक सैकड़ों मौते हो चुकी हैं। लिहाजा पुलिस प्रशासन ने गंगा बैराज क्षेत्र में गंगा स्नान करने वालों के खिलाफ कानूनी डंडा उठा लिया है। पुलिस प्रशासन ने गंगा स्नान के लिए इसे अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया है। गंगा स्नान करने की मनाही है। सैर-सपाटा करें। आनन्द लें। जीवन को जोखिम में न डालें।



Monday, December 5, 2016

 कानपुर का जाजमऊ : सूफी संत मखदूम शाह की दरगाह भी एक शान
 
  'ताजमहल" जैसी खूूबसूरती देखनी है तो एक बार कानपुर शहर की जिन्नात की मस्जिद भी देखें। जी हां, भले ही आगरा जैसा पर्यटन स्थल न दिखे लेकिन 'खासियत" में कहीं कोई कमी नहीं मिलेगी। कानपुर शहर का पूर्वी इलाका 'जाजमऊ" के नाम से विख्यात है। 'जाजमऊ" खासियत-खूबियों से लबरेज है।

जाजमऊ में सूफी संत की दरगाह है तो वहीं वास्तुकला के अनुपम उक्करण अवलोकित होते हैं। जाजमऊ की खोदाई में 1200-1300 शताब्दी के बर्तन व कलाकृतियां भी मिलीं। 'जाजमऊ टीला" की खोदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने करायी थी। इस खोदाई में असंख्य बहुमूल्यवान वस्तुयें प्राप्त हुयीं। हालांकि वर्तमान में यह कानपुर संग्रहालय में शोभायमान हैं। देश के चमड़ा उत्पादक शहरों में कानपुर का नाम भी शीर्ष पर है। कानपुर का चमड़ा उद्योग खास तौर से जाजमऊ में ही क्रेन्द्रित है। जाजमऊ का टीला प्रसिद्ध है। जाजमऊ का टीला काट कर ही लखनऊ-उन्नाव को जोड़ने वाला शहर का दूसरा पुल बनाया गया। हालांकि यह टीला आज भी अपनी आन-बान-शान के साथ विद्यमान है।

इसी टीला पर ही 'जिन्नात की मस्जिद" है। इस मस्जिद की खूबसूरती वास्तुकला एवं सफेद रंग के लिए प्रसिद्ध है। इस मस्जिद के निर्माण की खास बात यह रही कि एक रात में ही इस मस्जिद का निर्माण हो गया। किसी ने मस्जिद को बनते नहीं देखा। किसी अदृश्य शक्ति ने इसका निर्माण किया। बताते हैं कि हिजरी 1092 में जिन्नात मस्जिद का निर्माण हुआ। इस मस्जिद का इतिहास करीब 350 साल पुराना है। सूफी संत मखदूम शाह बाबा की दरगाह पर शीश नवाने दूर-दराज से लोग जाजमऊ आते हैं। फिरोजशाह तुगलक ने 1358 में मखदूम शाह बाबा का मकबरा बनवाया था।

 मुगलशासक आैरंगजेब के सिपहसलार कुलीच खान ने जाजमऊ इलाके में 1679 के आसपास चार मस्जिदों का निर्माण कराया था। कुलीच खान खुद हैदराबाद के निजाम खानदान से ताल्लुक रखते थे। वर्ष 2006 में शहर को लखनऊ-उन्नाव को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग को चौड़ा करने के लिए जाजमऊ की एक बार फिर खोदाई की गयी तो इस खोदाई में पुरातनकाल के बर्तन, कलाकृतियां व अन्य साज-ओ-सामान मिला। इसे कानपुर संग्रहालय में रखा गया। इसी इलाके में हबीबा की मस्जिद भी है। जाजमऊ में लाल बंगला, हरजिन्दर नगर, केडीए मार्केट, डिफेंस कालोनी, पुराना जाजमऊ, चमड़े के कारखाने, वाजिदपुर, जम्मू कश्मीर कालोनी, छबीले पुरवा, गज्जू का पुरवा, पोखरपुर, परदेवनपुरवा, गौशाला, रामेश्वरधाम, विमान नगर, बीबीपुर, जग्गीपुरवा, ग्रेटर कैलाश, चंदननगर, कैलाश नगर व शिवकटरा आदि इलाके-मोहल्ला आदि आते हैं। जाजमऊ में छोटे कारखाना से लेकर बड़ी टेनरी तक करीब तीन सौ चर्म उद्योग संचालित होते हैं। दरगाह-मकबरा में श्रद्धा से शीश नवाते हैं तो बहुसंख्यक रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं। 



Sunday, December 4, 2016


ब्रिटिश सैनिकों की याद-स्मारक
कानपुर मेमोरियल चर्च
 
       'स्वाधीनता आंदोलन" ब्रिटिश हुकूमत के लिए भी कम पीड़ादायक नहीं रहा। स्वाधीनता आंदोलन में जहां एक ओर ब्रिटिश हुक्मरान हिन्दुस्तानियों पर जुल्म ढहाने में पीछे नहीं रहे तो उनको भी 'अपनों" को बड़ी तादाद में खोना पड़ा। चाहे 'बीबीघर काण्ड" हो या फिर 'कानपुर की घेराबंदी" हो। हिन्दुस्तानियों के उग्र तेवर देख कर ब्रिटिश हुक्मरानों के भी होश उड़ गये थे। वर्ष 1875 में 'कानपुर की घेराबंदी" में बड़ी तादाद में ब्रिाटिश सैनिक मारे गये। अफसोस-आक्रोश के अलावा ब्रिाटिश शासक कुछ नहीं कर सके।

मृत सैनिकों के 'स्मरण-याद" में कानपुर के छावनी क्षेत्र में 'कानपुर मेमोरियल चर्च" एवं 'स्मारक उद्यान" का निर्माण किया गया। कानपुर मेमोरियल चर्च को पहले 'ओल सोल्स कैथेड्रल चर्च" के नाम से जाना जाता था। कानपुर क्लब के पास एलबर्ट रोड पर स्थित कानपुर मेमोरियल चर्च का निर्माण मृत ब्रिटिश सैनिकों के याद के साथ ही वास्तु शिल्प का एक विशिष्ट आयाम है। इस चर्च का डिजाइन पश्चिम बंगाल में रेलवे में कार्यरत वास्तुकार वाल्टर ग्रानविले ने किया था। उस समय कानपुर को कावनपुर के नाम से जाना जाता था। लौम्बार्ड संचरना पर बने इस चर्च के एक किनारे ब्रिटिश सैनिक कब्रिस्तान है। इस चर्च के एक हिस्से में स्मारक उद्यान भी है। चर्च में गोथिक शैली भी दिखती है। लाल र्इंट से बना यह चर्च विशेष आकर्षण का केन्द्र है। स्मारक उद्यान को हेनरी यूल ने डिजाइन किया था। इस उद्यान के दो प्रवेश द्वार हैं। खूबसूरत एवं नक्काशीदार परिसर में एक खूबसूूरत परी विशेष आकर्षित करती है। यह स्थल शांति के प्रतीक के तौर पर माना जाता है।

केन्द्र में एक देवदूत की प्रतिमा स्थापित है। इसकी भुजायें एक दूसरे के उपर हो गयी हैं। यह प्रतिमा एक तोरण को थामे है। इसे विश्व शांति का प्रतीक माना जाता है। इस मूर्ति का निर्माण मूर्तिकार बारों कार्लो मारोचेट्टी ने किया था। यह ऐतिहासिक चर्च अपने में असंख्य संस्मरण समेटे है। वर्ष 1875 के बाद संरचनाओं में कई परिवर्तन भी किये गये। चूंकि चर्च को एक स्मारक स्थल के तौर पर देखा जाता है लिहाजा 1857 के सशस्त्र संघर्ष सहित अनेक प्रसंगों को रेखांकित किया गया है। ललित कला के साथ ही मध्ययुगीन विचार धारा भी अवलोकित होती है। इमारत के भीतर कलाकृतियां एवं रेखांकन अतीत से रुबरु कराते हैं।  





Friday, December 2, 2016

देश का तीसरा सबसे बड़ा कानपुर का चिड़ियाघर
'देश का तीसरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर" ! जी हां, यह गौरव कानपुर के एलेन फॉरेस्ट जूलॉजिकल पार्क को हासिल है। करीब 76.65 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले कानपुर प्राणी उद्यान में 1250 से अधिक जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी प्रवास करते हैं। ब्रिाटिश शासनकाल में एलेन वन जॉर्ज बर्नी एलेन ने प्राणी उद्यान की कल्पना की थी। जॉर्ज एक प्रसिद्ध ब्रिाटिश उद्योगपति थे। इसे वर्ष 1913-1918 के बीच साधारण तौर पर विकसित किया गया लेकिन इसे आम जनता के लिए नहीं खोला गया। आम जनता के लिए प्राणी उद्यान को 4 फरवरी 1974 को खोला गया।

हालांकि कानपुर प्राणी उद्यान 1971 में खोला गया लेकिन अपेक्षित विकास एवं जनसुरक्षा को ध्यान में रख कर आम जनता के लिए 1974 में खोला गया। ब्रिाटिश इण्डियन सिविल सर्विस के सदस्य सर एलेन प्राकृतिक परिवेश में प्राणी उद्यान खोलना चाहते थे किन्तु उनकी योजना ब्रिाटिशकाल में विधिवत आकार नहीं ले सकी। सर एलेन की जमीन होने के कारण भारत सरकार ने कानपुर प्राणी उद्यान का नामकरण उनके नाम पर ही किया। हालांकि अब इसे कानपुर प्राणी उद्यान के नाम से ही जाना जाता है। इसे शहर का शानदार पिकनिक स्पॉट कह लें या साधारण भाषा में चिड़ियाघर या फिर प्राणी उद्यान कहें।

शहर के आजाद नगर के दक्षिणी हिस्से में विकसित कानपुर प्राणी उद्यान जहां जीवंत पशु-पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं से आबाद है तो वहीं डायनासोर जैसे भीमकाय जीव में मूर्तिशिल्प में देखने को मिलते हैं। डायनासोर जैसे भीमकाय जीव भी शहर के कलाकारों ने गढ़े। इस चिड़ियाघर में शेर, चीता, भालू, लकड़बग्घा, उदबिलाव, बाघ, तेंदुआ, गैंड़ा, लंगूर-बंदर, वनमानुष, चिम्पांजी, हिरण, विभिन्न प्रजाति की सर्प, विभिन्न प्रकार के पक्षी-चिड़िया आदि जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी इस प्राणी उद्यान की शोभा हैं। इस चिड़ियाघर के पुराने जीव में चिम्पांजी छज्जू की ख्याति शहर के साथ साथ दूर तक है।

शुतुरमुर्ग, न्यूजीलैण्ड का ऐमू, तोता, सारस, दुलर्भ घडियाल, दरियाई घोड़ा, हाथी-घोड़ा प्राणी उद्यान में हैं तो वहीं हैदराबाद का शेर भी दहाड़ से दर्शकों को रोमांचित करता है। प्राणी उद्यान में मछली घर है तो वहीं रात्रिचर गृह भी विशेष आकर्षण है। रात्रिचर गृह में उन जीव-जन्तुओं को स्थान दिया गया है, जो दिन में दृष्टिपात नहीं कर सकते। पशुओं-जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए चिकित्सक की उपलब्धता भी सुनिश्चित है। खास यह है कि प्राणी उद्यान मार्निंग वाकर्स एवं इवनिंग वाकर्स को ताजगी देता है तो वहीं प्राणी उद्यान प्रबंधन सामाजिक भूमिका में भी अग्रणी रहता है। कभी हास्य-व्यंग्य एवं काव्य संगोष्ठियां आयोजित होती हैं तो कभी कमलकार अपनी मेघा से परिवेश को गौरान्वित करते है। कलाकार भी पीछे नहीं रहते। कला प्रतियोगितायें हों या चित्रकला कार्यशाला भी आयोजित होती है। प्राणी उद्यान में विशाल झील भी है। यह झील प्राकृतिक परिवेश को आैर भी अधिक समृद्ध बनाती है।   


Thursday, December 1, 2016

कानपुर का घंटाघर : समय का ख्याल
  
       'घंटाघर" ! जी हां, समय बताने वाला घंटाघर। देश का शायद ही कोई बड़ा एवं पुराना शहर ऐसा नहीं होगा, जहां घंटाघर न हो। देश के अधिसंख्य शहरों में घंटाघरों का निर्माण खास तौर से ब्रिाटिशकाल में किया गया। ब्रिाटिशकाल में आम तौर कलाई घड़ी का प्रचलन नहीं था। यह यूं कहें कि कलाई घड़ी आम आदमी की पहंुच से दूर थीं। लिहाजा हुकूमत ने शहरियों को समय से अवगत कराने के लिए घंटाघरों का निर्माण कराया। कानपुर का घंटाघर भी इसी श्रंखला की धरोहर है।

 घंटाघर चौराहा के मध्य में न होकर दो मुख्य मार्गों के सानिध्य में स्थित है। घंटाघर का निर्माण ब्रिाटिशकाल में किया गया था। कक्षनुमा बने चार मंजिला घंटाघर में वास्तु शास्त्र का भी महत्व देखने को मिलता है तो वहीं मेहराबदार बनावट बताती है कि इसके निर्माण में केवल कानापूरी नहीं की गयी बल्कि पूरी शिद्दत से निर्माण किया गया। घंटाघर के निचले खण्ड में दुकानों की श्रंखला भी है। इन दुकानों को किराया पर आवंटित किया गया है। जिससे भूतल पर व्यावसायिक चहल-पहल रहती है तो वहीं आय से घंटाघर के रखरखाव की व्यवस्था भी होती है। घंटाघर की घड़ी टिकटिक करती रहती है। घंटाघर की घड़ी समय पूरा होने पर शहर को बताती है कि अब कितना समय हुआ है। घंटाघर का रखरखाव कभी कानपुर विकास प्राधिकरण के हाथों में रहा तो कभी कानपुर नगर निगम को सुपुर्द किया गया।

खास बात है कि देश का शायद यह पहला स्थान होगा, जहां घंटाघर चौराहा से नौ प्रमुख मार्ग निकलते-गुजरते हैं। देश के मुख्य रेल मार्ग दिल्ली-हावड़ा को जोड़ने वाले 'कानपुर जंक्शन" से बाहर निकलते ही घंटाघर चौराहा पर होंगे। घंटाघर चौराहा से कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन, यशोदा नगर, डिप्टी पड़ाव, कलक्टरगंज, हालसी रोड, दालमण्डी-नयागंज, मालरोड-एक्सप्रेस रोड (तीन मुख्य मार्ग) सुतरखाना आदि इलाकों से आने-जाने वाली सड़कें जुड़ती हैं। घंटाघर चौराहा पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की आदमकद प्रतिमा स्थापित है। इसी चौराहा के एक्सप्रेस रोड कार्नर पर किसान नेता चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा स्थापित है। करीब दो दशक पहले इस चौराहा का सौन्दर्यीकरण किया गया। कानपुर विकास प्राधिकरण ने चौराहा का न केवल सौन्दर्यीकरण कराया बल्कि क्षेत्र के यातायात को भी सुगम बनाया।