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Sunday, December 18, 2016

मां कुष्माण्डा देवी : जल करे रोगी को निरोग
 
        रोगों से मुक्ति पाएं। मां कुण्माण्डा देवी के चरणों के जल को ग्रहण करें। निश्चय ही शरीर स्वस्थ्य एवं निरोगी होगा। 'मां कुष्माण्डा देवी" के भक्तों-श्रद्धालुओं के बीच तो यही मान्यता है। मां कुष्माण्डा देवी के चरणों का जल नेत्ररोगों में भी लाभकारी है। कानपुर शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर घाटमपुर में स्थित मां भगवती के इस स्वरुप के दर्शन करने बड़ी संख्या में भक्त उमड़ते हैं। करीब एक हजार वर्ष पुराने इस मंदिर की अपनी एक अलग गाथा है। मंदिर में मां भगवती के इस स्वरुप की लेटी प्रतिमा है। मां का यह स्वरुप एक पिण्डी के रुप में है। खासियत यह है कि प्रतिमा से जल का रिसाव अनवरत होता रहता है। मान्यता है कि इस जल को ग्रहण करने से सभी प्रकार के असाधारण-असाध्य एवं सामान्य रोग का निवारण हो जाता है। नेत्र रोग में इस जल को आंखों में लगाने से लाभ मिलता है। 

सूर्योदय से पूर्व स्नान कर मां भगवती कुष्माण्डा के दर्शन कर जल ग्रहण करने से निश्चित कोई भी असाध्य रोग हो, ठीक हो जाता है। छह माह तक जल ग्रहण करने से शरीर पूर्णतय: स्वस्थ्य हो जाता है। प्रतिमा से जल का रिसाव कैसे व कहां से होता है ? यह रहस्य बना हुआ है। इस रहस्य को वैज्ञानिक भी नहीं खोज पाए। इस मंदिर-मठिया का निर्माण राजा दर्शन ने वर्ष 1380 में कराया था। यह स्थान मां की मठिया के रुप में था। किवंदती है कि घाटमपुर के इस इलाके में प्राचीनकाल में घना जंगल था। कुड़हा नामक ग्वाला गाय चराने इस जंगल में आता था। ग्वाला गाय तो चराता लेकिन गाय दुग्धदान नहीं करती। इससे ग्वाला परेशान था। अन्तोगत्वा, एक दिन ग्वाला ने देखा कि एक स्थान पर गाय ने दुग्धदान किया।


 रात्रिकाल में मां भगवती ने ग्वाला का स्वप्न दिया कि दुग्धदान का स्थान मां भगवती का स्थान है। ग्वाला ने यह स्वप्न राजा दर्शन को बताया। इसके बाद ग्वाला ने उस स्थान की खोदाई करायी तो मां भगवती के इस स्वरुप पिण्डी का प्राक्ट्य हुआ। ग्वाला कुड़हा व अन्य ग्रामीणों ने मां भगवती के इस स्वरुप पिण्डी को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया। पिण्डी से जल रिसाव हो रहा था। यह देख ग्रामीण आश्चर्यचकित थे। जल को ग्रामीणों ने प्रसाद के तौर पर ग्रहण किया। बाद में राजा दर्शन ने इस स्थान पर मठिया-मंदिर का निर्माण कराया। ग्वाला का नाम कुड़हा था लिहाजा इलाके में कुड़हा देवी के नाम से भगवती के इस स्वरुप की ख्याति हुयी। अब मां भगवती के इस स्वरुप को कुड़हा देवी एवं कुष्माण्डा देवी के तौर पर ख्याति है। मां भगवती के इस स्वरुप को सती के चौथा अंश माना जाता है। शारदीय एवं चैत्र नवरात्र में मंदिर क्षेत्र में विशाल एवं भव्य मेला लगता है। 

इसे आसपास के इलाके का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। मनोकामना के लिए भक्त एवं श्रद्धालु माता को चुनरी, ध्वजा, नारियल, घंटा आदि भेंट स्वरुप चढ़ाते हैं। पुआ व भीगे चने भी मां को अपर्ण किये जाते हैं। बताते हैं कि 1890 में चंदीदीन भुर्जी ने इस मंदिर का भव्य-दिव्य निर्माण कराया था। वर्ष 1988 सितम्बर से मंदिर में मां कुष्माण्डा की अखण्ड ज्योति जल रही है। मंदिर परिसर में ही दो विशाल एवं भव्य तालाब हैं। इन तालाब में भक्त एवं श्रद्धालु स्नान करते है तो श्री कृष्ण की नाग नाथने की लीला भी इसी जलक्षेत्र में होती है। इस अवसर पर विशाल मेला लगता है। खास बात यह है कि यह तालाब कभी नहीं सूखते। इस जलाशय का जल मां को अर्पित किया जाता है। नवरात्र की चतुर्थी को मां कुष्माण्डा देवी मंदिर परिसर में दीपदान महोत्सव भी होता है। इस दीपदान महोत्सव को देखने दूरदराज से भक्त बड़ी संख्या में आते है। श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास का यह केन्द्र अब पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा है।   

1 comment:

  1. बहुत ही अच्छी जानकारी हासिल हुई। धन्यवाद्। जय माता दी।

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