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Wednesday, January 18, 2017

कानपुर का 'परेड" : शहर का एक खास

  
                 कानपुर का 'परेड" शहर का एक खास स्थान है। परेड चौराहा भी है तो परेड मैदान भी है। सभी कुछ खास। ब्रिाटिश हुकूमत में मुख्यत: सैनिक बैरक एवं सैनिक परेड के लिए यह स्थान आरक्षित था।

            'सिविलियन नॉट एलाऊड" एनाउंसमेट था। लिहाजा इस इलाके में शहर के बाशिंदे नहीं आते थे। छावनी बनने के बाद ब्रिाटिश सैनिक छावनी शिफ्ट हो गये। इसके बाद यह इलाका स्वत: खास से शहर का आम हो गया। धीरे-धीरे इस इलाके ने खासियत हासिल कर ली। अब शहर का यह सबसे बड़ा व्यापारिक एवं सांस्कृतिक इलाका हो गया। परेड को सांस्कृतिक सद्भाव का स्थल भी कहें तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि इस मैदान में बहुत बड़ा बाजार लगता है।

            इस बाजार में अधिसंख्य दुकाने अल्पसंख्यक समुदाय की हैं लेकिन इसी मैदान में रामलीला का मंचन भी होता है। रामलीला के मंचन हेतु अल्पसंख्यक समुदाय स्वत: मैदान को खाली कर देता है। इस दौरान कारोबार पूरी तरह से बंद हो जाता है।

              इसे सौ वर्ष से भी कहीं अधिक समय हो गया। परेड मैदान के दक्षिण में स्टेशनरी का बड़ा मार्केट है तो पश्चिम में गैर-शाकाहारी उपयोग की वस्तुएं बिकती हैं। उत्तर में खास नवीन मार्केट है। खास व आम बाजार एक दूसरे के आमने-सामने हैं। रईस व्यक्तियों का बाजार नवीन मार्केट कहलाता है तो वहीं परेड गरीब का बाजार माना जाता है।
   


Tuesday, January 17, 2017

अंग्रेजी फौज का पहला ठिकाना 'जूही" था

  
       'स्वाधीनता आंदोलन" से पहले ब्रिाटानिया हुकूमत का सैनिक ठिकाना सबसे पहले 'जूही" में बना था। यूरोपियन व्यापारियों की रक्षा-सुरक्षा को ध्यान में रख कर सुरक्षा का ताना-बाना बुना गया। इस ताना-बाना में जूही को फौज ने ठिकाना बनाया।

          हालांकि कुछ समय बाद फौज को जूही से छावनी में शिफ्ट कर दिया गया। छावनी कानपुर नगर में ही है। विशेषज्ञों की मानें तो 1778 में अंग्रेज छावनी बिलग्राम के पास फैजपुर कम्पू में थी। यहां से हटा कर फौज को कानपुर लाया गया। छावनी के इस परिवर्तन का बड़ा कारण यूरोपियन व्यावसायियों को पर्याप्त सुरक्षा-संरक्षा देना था। कानपुर छावनी का अधिसंख्य हिस्सा अब शहर का हिस्सा बन गया। वर्ष 1840 के अभिलेखों की मानें तो छावनी की पूर्वी सीमा जाजमऊ तक थी। छावनी की यह सीमा गंगा के किनारे-किनारे सीसामऊ नाला होते हुये भैरोंघाट तक थी। 

             दक्षिण पश्चिम में कलक्टरगंज तक रही। यह सीमा दलेलपुरवा तक रही। छावनी के पूर्वी भाग में तोपखाना था। अंग्रेजी पैदल सेना की बैरक परेड मैदान में थी। स्वाधीनता आंदोलन के बाद छावनी सहित शहर का सीमांकन तय हुआ। छावनी का अधिसंख्य हिस्सा शहर के बाशिंदों को दे दिया गया।

             छावनी के मोहल्लों में सदर बाजार, गोराबाजार, लालकुर्ती, कछियाना, सुतरखाना, दानाखोरी आदि इलाके आते हैं। मेमोरियल चर्च, कानपुर क्लब, लाट साहब की कोठी यहां की रौनक हैं। छावनी का प्रबंधन कैंटोमेंट बोर्ड के सुपुर्द है। 


Monday, January 16, 2017

विक्टोरिया मिल : नहीं रही सुरक्षित

  
       एशिया का मैनचेस्टर कानपुर ने शनै:-शनै: अपनी ख्याति भी सुरक्षित नहीं रख सका। अफसोस तो होना ही था लेकिन किसी विरासत का खोना व सुरक्षित न रख पाना कहीं अधिक कष्टकारी होता है। 

          जी हां, ब्रिटिश हुकूमत में शहर में कई मिलों की स्थापना हुयी। इनमें से एक विक्टोरिया मिल भी थी। ब्रिटिश हुकूमत के बाद विक्टोरिया मिल निजी क्षेत्र के स्वामित्व में चली गयी। शनै:-शनै: स्वामित्व भारत सरकार के हाथों में आ गया। नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन ने मिल का प्रबंधन संभाला लेकिन 'आंदोलन" ने मिल की साख को धुमिल किया तो वहीं मिल की धार को कुंद कर दिया। असंख्य झंझावात के बाद भारत सरकार ने वर्ष 2002 में ताला बंदी घोषित कर दी। 

             शहर में म्योर मिल के बाद विक्टोरिया मिल की स्थापना हुयी थी। म्योर मिल की स्थापना 1874 में हुयी थी। इसके एक साल बाद विक्टोरिया मिल की स्थापना हुयी थी। सूती वस्त्र उत्पादन की यह एक बड़ी मिल थी। इस मिल का उत्पादित सूती वस्त्र हिन्दुस्तान के साथ ही विदेश तक जाता था लेकिन आर्थिक झंझावात को अधिक समय तक प्रबंधन झेल नहीं सका लिहाजा वर्ष 2002 में मिल बंद हो गयी जिससे 1200 से अधिक श्रमिक बेरोजगार हो गये। हालांकि भारत सरकार की रीतियों-नीतियों के मुताबिक श्रमिकों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्रि के लाभ दिये गये लेकिन दंश यह था कि रोजगार के अवसर छिन गये।

Sunday, January 15, 2017

म्योर मिल : आंदोलन का ग्रहण

  
          कानपुर शहर की ख्याति को आंदोलन का ग्रहण लगा। ग्रहण भी ऐसा जिससे सैकड़ों परिवार बर्बाद एवं बेरोजगार हो गये। अधिकार के लिए संघर्ष करना कोई गलत एवं नकारात्मक दिशा नहीं। 

     'आंदोलन" की दिशा 'रचनात्मक एंव सकारात्मक" हो तो नए आयाम बनते हैं लेकिन आंदोलन का स्वरुप स्वहित पर आधारित एवं केन्द्रीत हो तो विध्वंस लाजिमी है। कानपुर शहर में मिलों की एक लम्बी श्रंखला थी लेकिन शनै:-शनै: मिलें बंद हो गयीं। शहर की शान में शुमार सिविल लाइंस स्थित म्योर मिल भी अंतोगत्वा बंद हो गयी। नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन के अधीन संचालित म्योर मिल करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले अस्तित्व में आयी थी। वर्ष 1874 में म्योर मिल ने उत्पादन प्रारम्भ किया था। 

           इस मिल में करीब 63 श्रमिक कार्य करते थे। श्रमिक अशांति ने म्योर मिल की धड़धड़ाती मिलों को खामोश कर दिया। इस मिल में खास तौर से सूती वस्त्र उत्पादन होता था। सूट, तौलिया, गमछा, चादर सहित अन्य प्रकार का कपड़ा तैयार किया जाता था। श्रमिक अशांति ने मिल की मशीनों को कबाड़ में तब्दील कर दिया क्योकि श्रमिक कार्यविरत थे लिहाजा धीरे-धीरे मशीनों को जंग लगता गया लिहाजा मशीनें बेकार हो कर कबाड़ हो गयीं। कबाड़ मशीनों को बेंच दिया गया। श्रमिकों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) दे दी गयी।

            अरबों की सम्पत्ति की देखरेख-रखवाली के लिए एक दर्जन से अधिक कर्मचारी तैनात हैं। यह मिल वर्ष 2002 में बंद हुयी। हालांकि इस मिल को संचालित करने-चलाने की कोशिशें कई बार हुयीं लेकिन कोशिशें कामयाब नहीं हो सकीं। लिहाजा मिल में ताला बंद। अब मिल परिसर में झाड़-झंखाड़ खड़ा हो रहा है।   
  
      


Friday, January 13, 2017

मेस्टन रोड : शहर का व्यापारिक क्षेत्र

  
       'मेस्टन रोड" शहर का एक व्यापारिक क्षेत्र। कानपुर शहर का खास मेस्टन रोड खरीद-फरोख्त की हलचल से आबाद रहने वाला इलाका है। बड़ा चौराहा से मूलगंज को जोड़ने वाले इलाके को मेस्टन रोड के तौर पर जाना-पहचाना जाता है। 

           खास तौर से यह इलाका थोक एवं फुटकार कारोबार का क्षेत्र है। करीब डेढ़ किलोमीटर के दायरे वाला यह बाजार इंसान की हर आवश्यकता को पूरा करता है। बारिश से बचने के लिए रैनकोट खरीदना हो या सर्दी से बचाव के लिए कोट-स्वेटर्स आदि कुछ भी खरीदना हो. सभी कुछ इस बाजार में उपलब्ध होगा। 

         इस इलाके में बिजली का सामान भी मिलेगा तो वहीं सिर ढ़कने वाली सुन्दर कैप भी मिलेगी। छाता लेना हो या पुलिस को अपनी वर्दी सिलवानी हो या खरीदनी हो। सभी कुछ यह बाजार देगा। जूता-चप्पल के तो शानदार शोरुम इलाके की शान है। मेस्टन रोड से हटिया बाजार, खोवा मण्डी, बिसाती बाजार, चौक सर्राफा, चौक स्टेशनरी बाजार, टोपी बाजार, मनीराम बगिया, रोटी वाली गली आदि सहित छोटे-बड़े कई बाजार हैं।अरबों के टर्नओवर वाला यह बाजार स्थानीय से लेकर उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों से आने वाले उपभोक्ताओं से आबाद रहता है तो वहीं मक्खन-मलाई का भी  स्वाद इन इलाकों में खूब मिलता है।  

Thursday, January 12, 2017

खेरेश्वरधाम : अश्वत्थामा की भी अगाध आस्था 

  

       'चमत्कार को प्रणाम" जी हां, फूल स्वत: रंग बदल दे तो उसे चमत्कार ही कहेंगे। फूल का यह कोई प्राकृतिक बदलाव नहीं बल्कि श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास है। 

        उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से करीब चालीस किलोमीटर दूर शिवराजपुर स्थित खेरेश्वर धाम मंदिर में शिवलिंग के पूजन-अर्चन के फूल स्वत: रंग बदलते हैं। निशाकाल में पूजन-अर्चन में शिवलिंग को सफेद रंग के फूल अर्पित किये जाते हैं लेकिन सुबह एक फूल का रंग स्वत: लाल हो जाता है। मान्यता है कि 'अश्वत्थामा" निशाकाल में पूजन करते हैं। मंदिर के पट बंद होने के बाद अश्वत्थामा शिवलिंग का पूजन-अर्चन करते हैं। मान्यता है कि खेरेश्वरधाम मंदिर के इस शिवलिंग की स्थापना महाभारतकाल में गुरू द्रोणाचार्य ने की थी। द्रोणाचार्य के पुत्र का जन्म भी इसी स्थान पर हुआ था। गुरू द्रोणाचार्य व उनके पुत्र अश्वत्थामा की अगाध आस्था शिव में थी। गुरू द्रोणाचार्य ने शिवलिंग की स्थापना कर खेरेश्वरधाम मंदिर का निर्माण कराया था। अगाध आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास से ही मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी रात्रि-निशाकाल में शिवलिंग का पूजन-अर्चन करने आते हैं। शिवलिंग पर केवल गंगाजल ही अर्पित किया जाता है। 

           निशाकाल में पुजारी शिवलिंग का पूजन कर पट बंद कर देता है। पूजन में शिवलिंग पर सफेद फूल अर्पित किये जाते हैं। शिवलिंग का सफेद फूलों से श्रंगार किया जाता है लेकिन सुबह मंदिर पट खोले जाते हैं तो एक सफेद फूल का रंग स्वत: लाल मिलता है। साथ ही शिवलिंग पर अर्चन भी किया होता है। यह कोई किवदंती नहीं बल्कि हकीकत के तौर पर दिखती है। यह आश्चर्य ही है। मंदिर परिसर के उत्तर दिशा में 'गन्धर्व सरोवर" है। 'गन्धर्व सरोवर" वही स्थान है, जहां यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किये थे। खेरेश्वरधाम मंदिर पूर्वमुखी है। खेरेश्वरधाम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग के मध्य में स्थापित शिवलिंग ही प्राचीन शिवलिंग है। मंदिर में वास्तुकला भी देखने को मिलती है तो वहीं निर्माण में वास्तुशास्त्र का भी ख्याल रखा गया है। उत्तर ईशान कोण में मारुतिनन्दन का मंदिर है। इसी स्थान पर कुंआ भी है। कई मील के दायरे में फैला शिवराजपुर का यह क्षेत्र महाभारत काल में अरण्य वन क्षेत्र माना जाता था। इसी अरण्य वन में द्रोणाचार्य का आश्रम भी था। इसी आश्रम में महापराक्रमी अश्वत्थामा का जन्म हुआ था। 

           गंगा नदी से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेरेश्वरधाम में शिवलिंग पर गंगाजल ही अर्पित किया जाता है। मान्यता है कि शिवलिंग का निरन्तर पांच दिवस पूजन-अर्चन करने से अभिष्ट की प्राप्ति होती है। पूजन-अर्चन में महादेव को बेल-पत्र, फूल, अक्षत, भांग, धतूरा, केसर अर्पित किया जाता है। श्रावण मास में खेरेश्वरधाम में मेला भी लगता है।      


Wednesday, January 11, 2017

बड़ा चौराहा : शहर की धड़कन

  
       कानपुुुर के 'बड़ा चौराहा" को शहर की धमनी-धड़कन  कहें तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। जी हां, कमोबेश हकीकत तो यही है। जिला मुख्यालय जाना हो या फिर डाकघर मुख्यालय अथवा शहर के खास हाट-बाजार जाना हो तो बड़ा चौराहा से एक बार तो तारुफ करना ही होगा। 

       शहर का बड़ा चौराहा एक ऐसा स्थान है, जहां मुख्यालय से लेकर करीब-करीब हर मुख्य एवं आम गतिविधि से वाकिफ हो जायेंगे। अब तो बड़ा चौराहा पर पूर्व दिशा में शहर का सबसे बड़ा मॉल 'जेड स्क्वायर" भी बन चुका है। लिहाजा यह कह सकते हैं कि बड़ा चौराहा एक शॉपिंग सेंटर बन चुका है। हालिया रिलीज फिल्म देखनी हो या फिर मनपसंद गारमेंट्स की खरीददारी करनी हो... बहुत कुछ अब यहां उपलब्ध है। यानि शॉपिंग के मजे। इस स्थान पर कभी विदेशी बैंक एएनजेड ग्रिण्डलेज बैंक की शाखा थी लेकिन अब गगनचुम्बी मॉल खड़ा है। 

         गंगा स्नान करना हो तो बड़ा चौराहा से सरसैया घाट चंद कदम की दूरी पर है तो जिला मुख्यालय जाना हो तो भी निकट है। अधिसंख्य शासकीय विभाग इसी क्षेत्र में हैं। मुख्य डाकघर या डाकघर मुख्यालय भी इसी बड़ा चौराहा के एक कोने पर स्थित है। दाहिनी कोना पर शहर के शासकीय अस्पतालों में डफरिन हास्पिटल एवं उर्सला हार्समैन हास्पिटल संचालित हैं। यूं कहें कि उपचार हेतु शहर का प्रमुख स्थल। शहर की कोतवाली भी इसी बड़ा चौराहा के सन्निकट स्थित है। 

           इसी चौराहा के निकट श्री प्रयाग नारायण शिवाला भी है। प्रयाग नारायण शिवाला में महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन का एक बड़ा बाजार है। सुबह से देर रात तक बड़ा चौराहा पर रौनक दिखती है। खास तौर पर शहर के किसी आंदोलन का तेवर इसी चौराहा पर दिखती है। जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन करने वाले आंदोलनकारियों को इसी स्थान पर रोकने की कोशिश-कवायद होती है। कई बार आंदोलनकारी अपनी मांगों को मनवाने के लिए बड़ा चौराहा को जाम भी करते हैं। जिससे चौतरफा यातायात बाधित या बंद हो जाता है। किसी भी दृष्टि से देखें तो यह स्थान बड़ा चौराहा शहर का ह्मदय स्थल है।  

Tuesday, January 10, 2017

तुलसी उपवन : रामायण काल की जीवंतता

  
       'तुलसी उपवन" रामचरित मानस को रेखांकित करने वाला शहर का खास उद्यान-पार्क है। 'तुलसी उपवन" में रामायण काल के प्रसंगों को जीवंत करता है तो शहर के बाशिंदों को एक खूबसूरत परिवेश उपलब्ध कराता है।

         मानस संगम एवं कानपुर नगर निगम के संयुक्त प्रयासों से तुलसी उपवन विकसित हो सका। हिन्दी-मानस प्रेमी कॉमिल बुुल्के सहित कई हिन्दी विद्वानों की प्रतिमायें यहां प्रतिष्ठित हैं। मानस रचयिता गोस्वामी तुलसी दास कमल के फूल पर विद्यमान हैं तो मानस का करीब-करीब हर स्वरूप चाल-चरित्र एवंं चेहरा सहित बहुत कुछ अवलोकित होता है। यूं कहा जाये कि 'तुलसी उपवन" रामायण काल-इतिहास से जुड़ने-जोड़ने का मौका देता है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी।

              मानस संगम के संस्थापक बद्री नारायण तिवारी की मानें तो तुलसी उपवन की स्थापना का लक्ष्य-उद्देश्य नई पीढ़ी को इतिहास से जोड़ने, इतिहास से परिचित कराने एवं रामचरित मानस के प्रसंगों को सामान्य जनजीवन से जोड़ने का है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना कर समाज को बहुत कुछ दिया। अब तुलसी उपवन भी उसी का एक अंश है। तुलसी उपवन में भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं लक्ष्मण का मिलन रेखांकित करता है तो वहीं अशोक वाटिका में सीता का प्रवास भी अवलोकित है।

          राम-केवट संवाद सहित असंख्य प्रसंग इस 'तुलसी उपवन' में जीवंत हैं। 'तुलसी उपवन" में रामायण काल के प्रसंगों पर आधारित मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। तुलसी उपवन के छोटे-छोटे हिस्सों में मानस के प्रसंग आधारित मूर्ति श्रंखला विद्यमान है। शिलाखण्ड में मानस के प्रसंगों का उल्लेख एवं वर्णन भी मिलता है। जिससे नई पीढ़ी का ज्ञानवर्धन होता है। धर्मपरायण शहर को यह एक धार्मिक सौगात है। जिससे शहर को गौरव होता है तो वहीं नई पीढ़ी को ज्ञान मिलता है। 

          मानस संगम के तत्वावधान में तुलसी जयंती पर नित्य वर्ष तुलसी जयंती समारोह आयोजित किया जाता है। जिसमें देश-विदेश की नामचीन हस्तियां शिरकत करती हैं। तुलसी उपवन एक दार्शनिक उद्यान के साथ-साथ पर्यटन का भी केन्द्र है। उपवन जलधारा-झील श्रंखला भी है। जिसमें जलीय पक्षियों का कोलाहल, पेड़-पौधों पर पक्षियों का कोलाहल पर्यटकों को आनन्दित करता है।   


Monday, January 9, 2017

जापानी गार्डेन : मनोरंजन के साथ हंसी-ठहाके

  
       'जापानी गार्डेन" कानपुर शहर का एक खूबसूरत पार्क। जापानी गार्डेन सिर्फ जापान या दुनिया के अन्य देश-शहरों में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के प्रमुख आैद्योगिक शहर कानपुर की भी शान एवं मनोरंजन स्थल है। 'जापानी गार्डेन" बेनाझाबर-मेडिकल कालेज मुख्य मार्ग पर स्थित मोतीझील का हिस्सा है।

        'जापानी गार्डेन" खास तौर से बच्चों के खेल-कूद एवं मनोरंजन के लिए संसाधन-सुविधाओं से युक्त एक पार्क है। बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी मनोरंजन के संसाधन जापानी गार्डेन-पार्क में मौजूद हैं। करीब चार दशक पहले 'जापानी गार्डेन" अस्तित्व में आया। कानपुर विकास प्राधिकरण के इंजीनियर्स की यह संरचना शहर के बाशिंदों को खास 'तोहफा" है। देखरेख एवं रखरखाव-संचालन सभी कुछ कानपुर विकास प्राधिकरण के सानिध्य में चलता है। शहर के बाशिंदे यहां नौकायन का आनन्द लेते हैं तो बच्चों की फौज बड़े-बड़े हरे-भरे घास के लॉन-मैदान में सरपट दौड़ लगाती है।

           पर्यटन के लिए यह शहर का एक खास स्थान है। काफी कुछ जापान की संस्कृति से मोल-जोल वाली बनावट पार्क की है। बच्चों के फिसलने-मनोरंजन के लिए जूता के आकार सरपट-फिसलन खेल वाला खिलौना है। इसका शीर्ष झोपड़ी के आकार का बना है। बड़े-बड़े खूबसूरत जलाशय नौकायन का भरपूर मौका देते हैं। जलाशय में कहीं मछलियां गोता लगाते दिखेंगी तो बतख श्रंखला में तैरती नजर आयेंगी। इन दशा-दिशाओं के बीच घूमना-फिरना या नौकायन करना मन को बेहद प्रफुल्लित करता है। खूबसूरत पाथवे-खूबसूरत पुल-फ्लाईओवर बेहद अच्छे लगते हैं। चौतरफा हरा-भरा लॉन मन को एक ताजगी से भर देते हैं। 

        'जापानी गार्डेन" में एक शानदार म्युजियम भी है। म्युजियम में दर्शक ठहाके लगाते-लगाते हंस-हंस के लोट-पोट हो जाते हैं। म्युजियम हास्य का खजाना है। म्युजियम में खास किस्म के शीशों की श्रंखला प्रदर्शित है। इन शीशों-आइना में आप अपना अक्स देखेंगे तो खुद ही हंसने लगेंगे। शीशों की बनावट ही ऐसी है, जो आपकी शारीरिक संरचना को बेड़ौल दिखाती है। कहीं आप कुतुब मीनार की भांति लम्बे नजर आयेंगे तो कहीं आप नाटों की दुनिया में विचरण करते दिखेंगे।

           कहीं आप मोटे-थुलथुल होंगे तो कहीं आपका चेहरा ही हास्यास्पद दिखेगा। हंसी-ठिठोली का यह म्युजियम यहां खास है। कई एकड़ में विकसित जापानी गार्डेन सर्दी या गर्मी सदैव पर्यटकों, शहर के बाशिंदों से गुलजार रहता है। बच्चों-परिवार सहित जापानी गार्डेन घूमें या फिर यार-दोस्त संग चहलकदमी करें। जापानी गार्डेन के बाहर स्वादिष्ट व्यंजन के चटखारें लें। तो वहीं सांझ होते ही जापानी गार्डेन रातरानी की महक से गमकने लगता है। रातरानी की भीनी-भीनी खूशबू मन-मस्तिष्क को तरोताजा कर देती है।    

Sunday, January 8, 2017

कानपुर का संजय वन : दक्षिण का 'आक्सीजन टैंक"

  
        कानपुर का 'संजय वन" शहर दक्षिणी का 'आक्सीजन टैंक" माना जाए तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। उत्तर प्रदेश के वन विभाग के अधीन संरक्षित-अनुरक्षित 'संजय वन" सुबह व सांझ अपने आगोश में सैकड़ों बाशिंदों को प्रश्रय-आश्रय देता है। 

         भले ही 'संजय वन" के आसपास कंक्रीट का जंगल खड़ा हो लेकिन 'संजय वन" इलाकाई बाशिंदों को ताजा हवा के झोंके अर्थात भरपूर 'आक्सीजन" देता है। बाशंदों को यहां जीवन जीने के टिप्स मिलते हैं तो जीवन को आनन्ददायक कैसे बनाएं, इसकी शिक्षा-सीख मिलती है। संजय वन में निशुल्क योग का धारा प्रवाहमान होती है। साथी हाथ बढ़ाना... कोई अकेला थक जाये तो मिल कर बोझ उठाना..... कथ्य-तथ्य यहां यथार्थ दिखता है। समाज के समृद्धता से योग की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति की जाती है।

             बाशिंदे स्वस्थ्य भी होते हैं आैर आनन्द से परिपूर्ण जीवन भी जीते हैं। योग की शिक्षा-दीक्षा-प्रशिक्षण सब कुछ निशुल्क उपलब्ध हैं। संजय वन करीब पचास एकड़ से अधिक एरिया में फैले संजय वन में 'पर्यावरण संवर्धन" स्पष्ट अवलोकित होता है। संजय वन क्षेत्र में संजय वन चेतना केन्द्र है तो वहीं वन विभाग का प्रशिक्षण संस्थान भी संचालित है। मनोरंजन केन्द्र के तौर पर संजय वन परिसर में एक म्युजियम भी है। संजय वन में प्रवेश करते ही स्वास्थ्य से परिपूरित  परिवेश दिखेगा क्योंकि कहीं एकल योग-प्रणायाम करते हुये कोई दिखेगा तो कहीं समूह में योग के नाद से कुंडलिनी विद्या की प्रकाण्डता दिखेगी। 

        कुल मिला कर स्वास्थ्य लाभ के लिए संजय वन आईए आैर स्वस्थ्य होकर जाइए। यह मनोभावना यहां दिखती है। परिसर में चाहे नीम, बबूल, सहजन हो या फिर आम, इमली या फिर पीपल-पाकड़-बरगद हो सभी प्रजातियां के पेड़-पौधे दिख जायेंगे। संजय वन पर्यावरण से घना इतना कि एक किनारे से अंत देखना मुश्किल। सुबह एवं सांझ संजय वन ओम के नाद से अनुगूूंजित हो उठता है तो हंसी-खिलखिलाहट व ठहाके भी सुनाई देते हैं। 

Friday, January 6, 2017

हनुमान मंदिर पनकी : आस्था एवं विश्वास का सैलाब

  
        'आस्था एवं विश्वास" का सैलाब देखना हो तो कानपुर में 'पनकी वाले बाबा" के दरबार चलें। यूं कहें कि आस्था एवं विश्वास का सैलाब में शामिल हों। 'पनकी वाले बाबा" अर्थात 'हनुमान मंदिर पनकी" लोककल्याणक माने गये। लोककल्याणक हनुमान जी के दर्शन करने शहर के श्रद्धालु ब्राह्म मुहूर्त में ही दरबार पहंुच जाते हैं। 

         'बाबा का दरबार" ऐसा 'कोई खाली न गया"। बुढ़वा मंगल पर तो पांच लाख या इससे भी अधिक श्रद्धालुओं की भारी भीड़ दर्शन के लिए उमड़ती है। कभी शहर बाहर किन्तु अब शहरी सीमा में आने वाला पनकी भी बाबा के नाम से ही जाना जाता है। महाभारतकाल के इस मंदिर में श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास की धारा तो अनवरत दिखती है लेकिन बुढ़वा मंगल पर सैलाब दिखता है। मान्यता है कि हनुमान जी का यह मंदिर करीब चार सौ साल या इससे भी अधिक पुराना है। विशेषज्ञों की मानें तो हनुमान जी यह मंदिर महाभारत काल में अस्तित्व में आ चुका था। 

           किवदंती है कि महाभारतकाल में कौरवों ने पाण्डव को  हस्तिनापुर से निकाल दिया था। पाण्डव ने शिवली के जंगलों में कई वर्ष तक प्रवास किया। नदी में पाण्डव स्नान करते थे। इस नदी को अब पाण्डु नदी कहा जाता है। किवदंती यह भी है कि पाण्डव ने कन्नौज से नदी को शिवली तक लाने के लिए एक वर्ष तक खोदाई की थी। शिवली के जंगल में विचरण के दौरान भीम को हनुमान जी विशाल छवि-मूर्ति मिली जिसे वह कंधे पर रख कर जंगल से बाहर लेकर आये। पनकी में एक वृक्ष के नीचे मूर्ति रख दी। इसी स्थान पर हनुमान जी का मंदिर बना। 

         श्रद्धालुओं को बाबा अपने तीन स्वरुपों में दर्शन देते हैं। सुबह दर्शन करने पर हनुमान जी सूर्य की आभा से आलोकित बाल स्वरुप में दर्शन देते हैं तो वहीं दोपहर में युवा स्वरुप में दर्शन होते हैं। सांझ को बाबा महापुरुष के रुप में भक्तों के कल्याणक बनते हैं। मंदिर में हनुमान जी की भव्य-दिव्य प्रतिमा प्राण-प्रतिष्ठित है। प्रतिमा रजत अर्थात चांदी की आभा से आलोकित है। दिव्य-भव्य मंदिर निरन्तर दिव्यता एवं भव्यता को हासिल कर रहा है। शासकीय व्यवस्थाओं के तहत मंदिर परिसर सहित आसपास के क्षेत्र का सौन्दर्यीकरण भी किया गया। 

           श्रद्धालुओं की आस्था एवं विश्वास है कि बाबा 'हनुमान जी" को लड्डू भोग लगाने से मनोकामनायें पूर्ण होती हैं तो श्रद्धालु देशी घी का दीपक जलाते-प्रज्जवलित करते है। विश्वास है कि दीपक जलाने-प्रज्जवलित करने से इच्छित वरदान प्राप्त होता है। हनुमान जी यह मंदिर पनकी वाले बाबा के नाम से आसपास ही नहीं दूरदराज तक ख्याति प्राप्त है।   

Thursday, January 5, 2017

सरसैया घाट : 

गंगा आरती की दिव्यता-भव्यता

  
       ब्रिटिश हुकूमत रही हो या लोकतांत्रिक व्यवस्था, मोक्षदायिनी 'गंगा" आैर 'गंगाजल" बाशिंदों की आस्था एवं विश्वास में सदैव रहे। भारत के खास प्रदेश उत्तर प्रदेश के कानपुर में गंगा नदी का अपना एक अलग वेग-आवेग रहा। कानपुर को यूं ही छोटी काशी नहीं कहा जाता क्योंकि कानपुर के बाशिंदों में आचरण-संस्कार काफी कुछ काशी से मिलते-जुलते दिखते हैं। मंदिरों में घंटा-घडियाल की टंकार तो सुबह गंगा स्नान.... हर-हर गंगे... हर-हर महादेव का जयघोष एक धार्मिक एवं आध्यात्मिक शहर को व्यक्त-बयां करता है।

               शहर के प्रमुख गंगा घाटों में एक 'सरसैया घाट" भी है। जिला मुख्यालय के नजदीक 'सरसैया घाट" को भी कई बार अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। आजादी से पहले व स्वाधीनता के कुछ समय बाद तक 'सरसैया घाट" गंगा श्रद्धालुओं से आबाद रहता था लेकिन तीन से चार दशक के बीच गंगा शहर के मुख्य घाटों से रुष्ट हो गयी। गंगा को घाटों तक लाने के लिए आंदोलन से लेकर खोदाई तक हुयी। सरसैया घाट पर खोदाई का मुख्य श्रमदान चला। गंगा को घाटों पर लाने के लिए श्रमदान में फिल्म एवं धारावाहिक निर्माता रामानन्द सागर, अरविन्द त्रिवेदी, दीपिका चिखलिया, अरुण गोविल सहित असंख्य नामचीन हस्तियां शामिल हुयीं। शनै:-शनै: खण्डहर हो चले सरसैया घाट को एक बार फिर सजाया-संवारा गया। सुन्दरीकरण से गंगा के सरसैया घाट की तस्वीर तो बदली लेकिन 'गंगधारा" घाट पर नहीं आ सकी।

           सरसैया घाट पर ही स्वाधीनता आंदोलन से ताल्लुक रखने वाला गंगा मेला भी लगता है। इस मेला में लाखों शहरी-बाशिंदे शामिल होते हैं। चूंकि सरसैया घाट जिला मुख्यालय के निकट है लिहाजा ग्रामीण इलाकों के बाशिंदे भी गंगा स्नान के लिए इसी घाट पर आते हैं। श्रद्धालुओं की सुविधा-सहूलियत के लिए घाट पर ही गोकुल प्रसाद धर्मशाला भी है। शहर के धर्मावलम्बियों ने स्वाधीनता आंदोलन से पहले धर्मशला का निर्माण कराया था। सरसैया घाट पर शिवालय श्रंखला भी है। श्रद्धालुओं के कल्याणार्थ एवं जनसेवार्थ आयोजन भी होते हैं। अभी कुछ वर्षों से सरसैया घाट पर गंगा जी की आरती का भव्य-दिव्य आयोजन प्रारम्भ हुआ। गंगा आरती की दिव्य-भव्य छटा निहारते ही बनती है। 

Wednesday, January 4, 2017

मुक्ता देवी के दर्शन, पल-क्षण छवि में बदलाव

  
       मान्यताओं-परम्पराओं का कोई अंत नहीं। आश्चर्य-अचरज भी कम नहीं। देश-विदेश के वैज्ञानिक-विशेषज्ञ भी भौचक रह गये। भगवती माता मुक्तेश्वरी देवी की छवि में बदलाव होना, किसी आश्चर्य से कम नहीं। श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास का यह केन्द्र 'मुक्तेश्वरी देवी मंदिर" के तौर पर प्रख्यात है। इस मंदिर को मुुक्ता देवी के नाम से भी जाना जाता है। 


            भगवती मुक्ता देवी के दर्शन में पल-क्षण हर बार छवि में बदलाव महसूस करेंगे। यह कोई किवदंती नहीं, हकीकत है। छवि में निरन्तर बदलाव श्रद्धालुओं को आश्चर्य में डालता है। उत्तर प्रदेश के कानपुर में मुगल रोड पर मूसानगर है। मूसानगर वस्तुत: राजा-रजवाडों की राजधानी रहा है। सिठउपुरवा राज्य के राजा दैत्यराज बलि के शासनकाल में मूसानगर राज्य की  राजधानी रहा। यह समिश्रित क्षेत्र है क्योंकि एक ओर मूसानगर शहरी क्षेत्र से ताल्लुक रखता है तो वहीं यह इलाका चम्बल का हिस्सा भी माना जाता है। लोकगाथा की मानें तो यमुना नदी के किनारे स्थित यह भव्य-दिव्य मंदिर मुगल शासनकाल का माना जाता है।

            मान्यता है कि भगवती मुक्ता देवी के दर्शन करने मात्र से श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इस मंदिर की छवि सुहागिनों के कल्याणार्थ भी मान्य है। मुक्ता देवी का यह मंदिर परिसर एवं आसपास का क्षेत्र त्रेतायुग का इतिहास खुद-ब-खुद रेखांकित करता है। प्राचीन काल के अवशेष, प्रतिमायें एवं खण्डर त्रेतायुग से लेकर मुगलकाल की गाथा को खुद ही ब्यक्त-बयां करते हैं। दैत्यराज बलि की राजधानी मुक्ता नगर होने से इस क्षेत्र का नाम मूसा नगर एवं देवी स्थान का नाम मुक्ता देवी मंदिर प्रख्यात हुआ। देव, यक्ष एवं राजाओं की राजधानी होने के कारण इस क्षेत्र को देवलोक का दर्जा हासिल रहा। आसपास के साम्राज्य पर जीत हासिल करने के लिए दैत्यराज बलि ने विधि-विधान से 99 यज्ञ का अश्वमेघ यज्ञ कराया था। अभी भी उत्तरगामिनी में हवन-पूजन-अर्चन एवं यज्ञ की परम्परा है। विशेषज्ञों की मानें तो मंदिर की प्रतिमाओं से लेकर जर्जर खण्ड व अन्य अवशेष 50 से 2600 वर्षकाल के पुराने लगते हैं। 

            मंदिर क्षेत्र पठारी उबड़-खाबड़ एवं चम्बल का एहसास कराता है। मंदिर के पाश्र्व हिस्से से यमुना नदी का जल कोलाहल अवलोकित होता है तो प्रवेश क्षेत्र में शहरी आब-ओ-हवा महसूस होती है। शारदीय एवं चैत्र नवरात्र में भव्य-दिव्य मेला लगता है। जिसमें भारी संख्या में श्रद्धालुओं की आवाजाही होती है। भगवती मुक्तेश्वरी देवी के दर्शन करने हों तो शहर कानपुर से करीब पचास किलोमीटर की यात्रा करनी होगी।      


Tuesday, January 3, 2017

वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बेहटा का 'जगन्नाथ मंदिर"

  
       वैज्ञानिक भी रहस्य नहीं खोज सके। उत्तर प्रदेश के कानपुर के भीतरगांव का भगवान 'जगन्नाथ मंदिर" श्रद्धा-उपासना एवं आस्था का केन्द्र-स्थल है तो वहीं वैज्ञानिकों के लिए एक 'चुनौती" है। 

           चुनौती रहस्य खोजने या कारण तलाश करने की है। बेहटा-भीतरगांव का भगवान 'जगन्नाथ मंदिर" अपने अस्तित्व में काफी कुछ खास समेटे है। यह अजूबा ही है कि मानसून अर्थात बारिश का मौसम आने से पहले ही मंदिर 'सूचना" दे देता है कि बारिश आने वाली है। मानसून आ चुुका है। मानसून आने से पहले मंदिर की छत से पानी टपकने लगता है। मंदिर करीब एक सप्ताह पहले मानसून की सूचना देता है।

           आश्चर्य है कि चिलचिलाती धूप में मंदिर की छत से पानी टपकने लगता है तो मानसून आने के बाद छत से पानी टपकना एकदम बंद हो जाता है। इस भव्य-दिव्य मंदिर को 'मौसम मंदिर" के तौर पर भी ख्याति है। इस रहस्य को जानने के कई प्रयास हो चुके हैं। पुरातात्विक विभाग के विशेषज्ञ एवं वैज्ञानिक दल ने कई बार अध्ययन एवं अवलोकन किया लेकिन छत से पानी टपकने का रहस्य नहीं खोज सके।  विशेषज्ञों की मानें तो बेहटा भीतरगांव के इस मंदिर का निर्माण 6 वीं शताब्दी में किया गया था। यह काल भारत का स्वर्णिम गुप्तकाल रहा। करीब 68.25 फुट ऊंचाई वाले शिखर एवं छत की संरचना में प्राचीनता की झलक साफ तौर पर दिखती है। 

          इस मंदिर के निर्माण में खास र्इंटों का इस्तेमाल किया गया है। करीब 18 इंच लम्बी, 9 इंच चौड़ी व तीन इंच मोटाई वाली र्इंटों का उपयोग किया गया। मंदिर करीब 36 फुट चौड़े एवं 47 फुट लम्बे प्लेटफार्म पर बना है। मंदिर की दीवारों की मोटाई भी कम नहीं है। दीवार की मोटाई कहीं-कहीं 8 फुट तक है। मंदिर का डिजाइन गुम्बदाकार मेहराब पर आधारित है। विशेषज्ञों की मानें तो इस शैली का उपयोग भारत में पहली बार किया गया था। कुछ यूं कहें कि मंदिर वास्तुकला का नायाब निर्माण है। करीब 15 फुट लम्बे एवं चौडे गर्भगृह की ऊंचाई भी दो मंजिल से कम नहीं। गर्भगृह की दर-ओ-दीवार पर देवी सीता के अपहरण से लेकर नर-नारायण की छवियां उकृष्ट दिखती हैं। हिन्दू अवधारणा का साक्षात अवलोकन यहां होता है। 

         हिन्दुओं की आस्था एवं विश्वास का यह स्थान 'लोककल्याणार्थ" भी जाना जाता है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ एवं सुभद्रा सहित अन्य देवगण विराजमान हैं। पूजन-अर्चन एवं हवन आदि धार्मिक अनुष्ठान नियमित होते रहते हैं। मनौती के लिए श्रद्धालु दूर-दराज से आते हैं। शहर के ग्रामीण इलाके में होने के कारण मंदिर में अत्यधिक भीड़ तो नहीं होती लेकिन आसपास के इलाकों के बाशिंदों के मांगलिक कार्य अर्थात मुण्डन-कर्णछेदन संस्कार आदि होते हैं। मंदिर की बनावट बौद्ध मठ की भांति है। विशेषज्ञों का आंकलन है कि सम्राट अशोक के शासनकाल की वास्तुकला भी दिखती है तो वहीं चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल के भी कयास लगाये जाते हैं। निर्माण में टेराकोटा शैली की भी झलक मिलती है तो वहीं वास्तुकला भी गजब है।     

Monday, January 2, 2017

मनौती के लिए मां काली के मंदिर में ताला 


     आस्था, श्रद्धा व विश्वास हो तो निश्चय ही मनोकामनायें पूर्ण होंगी। आस्था, श्रद्धा व विश्वास के कारण ही मां काली के दरबार में नित्य भारी संख्या में श्रद्धालुओं-भक्तों की भीड़ उमड़ती है। जी हां, उत्तर प्रदेश के कानपुर महानगर के ह्मदय स्थल शिवाला बंगाली मोहाल में मां काली का दिव्य-भव्य मंदिर है। 

       बंगाली मोहाल का मां काली का यह विशाल मंदिर पांच सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। शहर की घनी आबादी वाले इलाके बंगाली मोहाल स्थित इस मंदिर में मां काली अपने पूर्ण स्वरुप में प्रतिष्ठापित हैं। नवरात्र में मां काली का विशाल नवरात्र उत्सव का आयोजन होता है। मां काली के इस दिव्य-भव्य स्थान पर मनौती मानने के लिए देश के कोने-कोने से श्रद्धालु, भक्त व जरुरतमंद आते हैं। मां काली के दर्शन-पूजन-अर्चन के साथ ही मान्यता व परम्परा है कि मनौती के लिए ताला (लॉक) अवश्य लगायें। मान्यता है कि मंदिर में ताला लगाने-बंद करने से श्रद्धालुओं-भक्तों की मनौती निश्चय ही पूर्ण होती है।

             मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालुओं को ताला खोलने के लिए मंदिर आना पड़ता है। मां काली के इस विशाल मंदिर में चौतरफा छोटे-बड़े बंद ताले लगे-लटकते दिख जायेंगे। बताते हैं कि ताला के रुप में श्रद्धालु-भक्त की इच्छा या मनौती उस स्थान पर बंद हो जाती है। इस इच्छा या मनौती को मां काली अवश्य पूर्ण करती हैं। यह ताले श्रद्धालुओं ने अपनी मनौती के लिए लगाये हैं। बताते हैं कि वर्षों से यह मान्यता-परम्परा अनवरत चली आ रही है। मनौती के ताला लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मंदिर परिसर के बाहर पूजन-अर्चन की सामग्री बेचने वाले दुकानदारों के पास ताला उपलब्ध हो जाता है। बताते हैं कि बंगाली मोहाल के इस मंदिर की स्थापना एक बंगाली परिवार ने की थी लेकिन अब इस मंदिर की देखरेख-देखभाल द्विवेदी परिवार करता है।

          बंगाली मोहाल में आज भी बड़ी संख्या में बंगाली परिवार रहते हैं। मां काली जी का नित्य निर्धारित परम्परा के अनुसार पूजन-अर्चन किया जाता है। परिधान पहनाने से लेकर श्रंगार तक सभी आवश्यक पूजन व्यवस्थायें व आरती सभी कुछ समय से सुनिश्चित किया जाता है। बंगाली संस्कृति व परम्पराओं का पालन किया जाता है। नवरात्र में सप्तमी, अष्टमी व नवमी को मां काली जी का विशेष पूजन अर्चन  होता है। दीपावली पर काली जी की महापूजा आयोजित होती है। बंगाली परिवारों के अलावा अन्य हिन्दू परिवार मां काली के इस दिव्य-भव्य स्थल पर बच्चों के मुण्डन संस्कार एवं कर्ण छेदन संस्कार सहित अन्य संस्कार भी कराते हैं। विशेष उत्सव पर मां काली के दर्शन-पूजन के लिए श्रद्धालुओं-भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।
                          

Sunday, January 1, 2017

'सीसामऊ बाजार" गरीबों का मेगामॉल

  
       'सीसामऊ बाजार" गरीबों का मेगामॉल। जी हां, आैद्योगिक शहर कानपुर का सीसामऊ बाजार गरीबों की हर खास-ओ-आम आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति करता है। 
          चाहे परिधान खरीदने हों या फिर चुल्हा-चौका एवं घर-गृहस्थी का कोई सामान खरीदना हो, सभी कुछ इस बाजार में आसानी से मिलेगा। वह भी काफी किफायती दामों पर उपलब्ध होंगे। करीब तीन से पांच वर्ग किलोमीटर दायरे में फैला सीसामऊ बाजार सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। शहर के जरीब चौकी चौराहा से पी रोड पर बजरिया चौराहा के बीच पड़ने वाला सीसामऊ बाजार खास तौर से महिलाओं के परिधान एवं रेडीमेड गारमेंट्स के लिए जाना जाता है लेकिन उपलब्ध सब कुछ होगा। सीसामऊ बाजार खास तौर से पी रोड के पश्चिमी इलाके को कहा जाता था लेकिन अब बाजार का विस्तार काफी लम्बे-चौड़े एरिया में हो चुका है। 
            सीसामऊ बाजार पूर्व में पी रोड व इसके आगे तक का इलाका है तो पश्चिम में जवाहर नगर, उत्तर में लेनिन पार्क व दक्षिण में राम बाग इलाका तक फैला है। महिलाओं के साज-ओ-श्रंगार का हर सामान सीसामऊ बाजार में उपलब्ध है तो वहीं सीसामऊ बाजार में आभूषण का एक अलग बाजार-मार्केट है। महिलाओं के साज-ओ-श्रंगार का हर आभूषण उपलब्ध होता है। खासियत यह कि गरीब परिवार भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति इस आभूषण बाजार से कर सकते हैं। करीब डेढ़ दशक पहले यह बाजार लाटरी के लिए विख्यात ंहो गया था। लाटरी गुरु 'शर्मा जी" की ख्याति भी सीसामऊ बाजार से जुडी़ तो वहीं जवाहर नगर ढ़लान पर शूज, जूता-चप्पल-सैंडिल का बाजार विकसित हो गया। दलहन से लेकर हरी ताजी सब्जियां भी उपलब्ध कराता है यह बाजार।
             इस बाजार के पी रोड कार्नर पर कभी 'गोपाल टाकीज" हुआ करती थी लेकिन अब गोपाल टाकीज ने रेडीमेड मार्केट की शक्ल अख्तियार कर ली है। इस तरह से देखा जाये तो चौतरफा सीसामऊ बाजार का विस्तार हुआ। सीसामऊ बाजार जहां एक ओर उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति करता है तो वहीं बड़ी तादाद में गरीबों को रोजी-रोजगार के अवसर उपलब्ध कराता है। सैकड़ों ठेला-ठेलिया वाले इस बाजार से रोजी-रोटी कमाते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि सीसामऊ बाजार के कारोबार का टर्नओवर एक अरब से अधिक हो। छोटे-बड़े दुकानदार-कारोबारियों को ही लें तो इनकी संख्यां भी पांच हजार से कम न होगी। कोई फुटपाथ पर दुकान लगा कर उपभोक्ताओं को उत्पाद की बिक्री करता है तो कोई आलीशान शोरुम से उपभोक्ताओं को लुभाता है।
         काफी लम्बे-चौड़े एरिया में सजने वाला यह बाजार उपभोक्ताओं-खरीददारों से हमेशा गुलजार रहता है। बच्चों को खिलौना दिलाना हो या बड़ों को सूट सिलवाना हो, कंहीं आैर जाने की जरुरत नहीं। सीसामऊ बाजार हर आवश्यकता की पूर्ति करेगा। सीसामऊ बाजार ने भी कई इतिहास रचे तो कई इतिहास देखे। कुछ भी हो सुई से लेकर सोने का हार तक सब कुछ उपभोक्ताओं को मुहैया कराने वाला यह बाजार देश-विदेश में भी जाना जाता है।